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________________ ૨૨૪ इसि भासियाई गंभीरो वि तवोरासी जीवाणं दुखसंचिओ अक्खेविण दवग्नि वा कोवग्गी न दहले खणा ॥ १२ ॥ अर्थ: गंभीर तपोराशि जिसे कि प्राणी महान क साधना के बाद एकत्रित कर पाता है या उसे उसी क्षण उसी प्रकार भस्म कर डालती है जैसे प्रज्वलित दावानि सूखे लकडों को जला डालती हैं। गुजराती भाषान्तर: મહાન્ પ્રયત્નોથી સાધ્ય કરેલી તપશ્ચાંને શુદ્ર ક્રોધામીથી તેજ હું અને ત્યાં જ નષ્ટ કરે છે કે જેમ જંગલમાં ફેલાયેલો આ જંગલના લાંકડોનું ભસ્મ ટુંક સમયમાંજ કરી નાખે છે. पूर्व गाथा में बताया गया था कि कषाय की ज्वाला तपकी साधना को नष्ट कर डालती हैं । प्रस्तुत गाथा उसी की पुष्टि में आई है। यहां अतर्षि उसके लिये सुन्दर मा रूपक भी दे रहे हैं । जैसे दावानल वन के सूखे वृक्षों को अविलंब भस्म कर देता है । इसी प्रकार को की आग साधककी कष्ट साधना की मिनिटों में भस्म कर डालती है । महान कष्ट और परीषहों के सहने के बाद जो साधना की संपत्ति अर्जित की उसे राख मौल राख बनते देख अर्हन का दिल अकुला उठा और वे कह उठे साधक तेरी संपत्ति को यों न जाने दे एक गरीब धूप और भूख की मार सहकर पहली तारीख को उसे धम के प्रतिफल में तीस काये मिलते हैं वह जब घर आता है पर सड़क पर दौड़ते है। मन वनों में दोड़ता है यह दाना है वह लाना है पर पहुंचा ये पत्नी के हाथों में धमाये और दूसरे कमरे में जान करने के लिये गया है । पत्नी भोजन बनाने के काम में व्यस्त थी, रुपये लिये और पास ही रख दिये। इधर चार वर्ष का नन्हा मुना आया और खेल में उसने नोट उठा और जलने की आने में दिये। मां से देखा यह अपटी उन्हें बाहर निकाले इतने में तो वे राख की ढेर हो गये। वह चिकाई पति बाहर आया नोटों की राख देखी तो उ दिल डबल पड़ा | आवेश में कांपते हाथों उसने बालक को भी पकड़कर चूल्हे में झोंक दिया। वह रोया चिळाया। माँ उसे बाहर निकली तब तक आग कपड़े पकड़ चुकी थी। अघ झुलसा बालक बाहर निकाल व दवाखाने पहुंचा तो पिता जेल की काली कोठारी में। फिर कितनी रोई थी पिता की आत्मा । यदि दीवार को भांखे होती तो वह भी सिसक उठती । ..यह सब क्या हुवा ! किसने किया। बालक के अज्ञान ने नोट की आग की लपटों में झांक दिया। कठिन थम से अर्जित संपत्ति कितनी होती है। प्रस्तुत पढ़ना दोनों तथ्यों को स्पष्ट करती है। टीका :- गंभीरोऽपि तपो - राशिजवानां साधुभिः पुरुषैर्दुः स्वेन कृष्छ्रातः संचितः, कोपाझिस्वापिर्णा आकर्षतां तयः काष्ठानि दहति क्षणाद् वनकाष्ठानीव दावाग्निः । " रास्त्र की तो पिता के कोष ने नन्हें बालक को प्रिय होती है तो काय परिणति कितनी बुरी कोण अयं दहती परं च अर्थ च धम्मं च तद्देव कामं । तिध्वं च वरं पि करेंति कोधा अधरं गतिं वा वि उविंति कोहा ॥ १३ ॥ अर्थ : फोन से आत्मा स्व और पर दोनों को जलाता हैं। अर्थ, धर्म और क्रोध को भी जलाता है। कोध तीव्र पैर भी करता है और कोष से आत्मा अधोगति प्राप्त करता है। गुजराती भाषान्तर: ક્રોધથી આત્મા ‘રવ” અને “પરને બાળે છે. તેમજ અર્થને, ધર્મને અન ગુસ્સાને ખાળે છે. અને પોતે પણ મુળી ાય છે. ક્રોધ ભયંકર વેર ફરે છે અને તેને કારણે આત્માને અધોગતિ પ્રાપ્ત થાય છે. प्रस्तुत गाथा में कोभ के द्वारा संभावित दानियां बताई गई है। कोष से आत्मा और पर दोनों खाता है। एक जलता हुआ कोय खुद को भी जला रहा है और उसके निकट जो भी आता है उसे भी जाता है और वह जहां पहुंचता है या जो भी उसके निकट आता है उसे भी यह जलाता है। फोन की आग में जलता हुआ व्यक्ति सबका शान्ति भन करता है। क्रोधी का दिमाग मानों बारूद का कारखाना है, जरा सी कर लगते ही भवाका होते देर नहीं लगती। में दूसरे को जलाने के लिये चलनेवाला स्वयं भी पहले उस आग उसके बाद ही वह दूसरे को जला सकती है। क्रोधित में व्यक्ति अपने यह तो आम तौर पर देखा जाता है, गुस्से में आकर आदमी कांच की झुलसता है । दिया सलाई पहले स्वयं जलती है, अर्थ धर्म और काम की भी हानिकर बैठता है। ग्लास दे भारता है। उस भले आदमी को कौन I
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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