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छत्तीसवां अध्ययन
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कोव आग हैं । आग का काम है जलाना । दुर्गुण सद्गुणों की राख है और वह रात्र आई है क्रोध की चिनगारी से ।
टीका: पूर्व मेरुवद् गंभीरलारेऽपि संयमे भूत्वा स्थित्वा कोपोमरजला धूत भावृतोऽसारत्वमतिच्छेत्यभिगच्छति । गतार्थः ।
मावि वाडही दिले घरे कुयये । चिट्टे चिट्ठे स रूसते णिन्वितमुपागते ॥ १० ॥ एवं तवोबलत्थे विणिच्चं कोहपरायणे । अचिरेणावि काले तोरित्तत्तमिच्छति ॥ ११ ॥
अर्थ : :- जैसे महाविषवर सर्प अहंकारित में होकर वृक्ष को इस लेना है, और उसमें अंकुर भी नहीं फूटने देता, अथवा किसी महापुरुष को सता है और उन्हें जब रोमांच भी नहीं होता है तब वह कोवित होकर रह जाता है, क्योंकि उसका विष या चला गया और अब वह निर्विष बन गया। उसी प्रकार महान् वल शाली तपस्वी भी नित्य क्रोध करत हैं तो शीघ्र ही उसका तप समाप्त हो जाता है।
જેમ ચકર જહરી કૃષ્ણસ" પોતાના ર્પને કારણે ઝાડને પણ દંશ કરે છે, પરિણામે તેને અંકુર પણ પૈદા થઈ શકતા નથી, અને જો કોઈ વીતરાગને દંશ કરે છે. અને તે મહાપુરુષ ઉપર જરા પણ અસર થતી ન હોય તે ગુસ્સાથી ઉશ્કેરે છે અને નિશ્ચેતન અની જાય છે; કેમ કે તેના જહેરની જરા પણુ તે મહાપુરુષપર અસર થઈ નથી ને તે પોતે નિશ્ર્વિત્ર બની જાય છે તે જ પ્રમાણે ખલવાન્ તપસ્વી પુરુષ પણ જો હરહંમેશા ક્રોધ કરે તો થોડાજ સમयमां तेनुं तत्र समाप्त (वास) या लय
प्रस्तुत गाथाओं में कोम को महा चित्रघर सर्प उपमित किया गया है। सर्प का दर्प जय किसी वृक्ष को डसता है किन्तु उसका परिणाम उसे शून्य मिलता है तो और भी क्रोधित हो उठता है । किन्तु बादमें उसकी विष की शक्ति भी समाप्त हो जाती है । अब उसे हर कोई राजा सकता है। तपस्वी साधक कुपित होकर दूसरे को भस्म करने के लिये कोष का उपयोग करता है तो उसका तप और तेज दोनों नष्ट हो जाते है।
गोशालक ने भगवान महावीर को भस्म करने के लिये तेजोलेश्या का उपयोग किया। परिणाम यह आया गौशालक अपनी वर्षों की साधना से अर्जित तपःशक्ति को खो बैठा। इतना ही नहीं वह उलट चली तेजः शक्ति ने उसी पर आक्रमण कर दिया। भयंकर दाह ज्वर ने उसे अशान्त कर डाला और उसे तेजोहीन होकर लौट जाना
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प्रसिद्ध दार्शनिक सौना ने कहा है कोन में पहले जोश होता है शक्ति की अधिकता का अनुभव होता है पर उसका कुमार डटने पर मनुष्य शराबी की भांति कमजोर हो जाता है। न्यूयॉर्क में वैज्ञानिकों ने कोच के परिणामों की जांच के' लिये एक कोधी व्यक्ति का खून चुहे के शरीर में डाला। बाइस मिनिट के बाद वह चूहा मनुष्य को काटने दौदा, ३५ मिनिट पर अपने आपको काटने लगा और एक घंटे में तो सिर पटक पटक कर मर गया। एक दूसरे वैज्ञानिक ने बताया है की पन्द्रह मिनिट के कोष से शरीर की उतनी शक्ति क्षीण हो जानी है जितनी कि नौ घंटे की मेहनत के बाद |
क्रोध के प्रारम्भ में मनुष्य अपने में शक्ति से भी दस गुना बल का अनुभव करता है किन्तु उसके बले जाने पर शिथिलता का अनुभव करता है। मानों नशा उत्तर गया हो। इसका अर्थ हुआ कोच के क्षणों आई गरभी ज्वर की गरमी है जो अपने उतार के साथ नस नस को ढीला कर देती है। 1
टीका :- महाविष इवाहि सर्पो हप्तोऽदसां कुरोट्र्योऽकुरायाप्युदयो न दत्तो येन स तथा खरेत् सत्यंस्तिछति विषं व वृथा मुक्तवान् निर्विषत्वमुपागतो भवति । एवं तपोबलस्थोऽपि नित्यं क्रोधपरायणोऽचिरेणापि कालेन तपोरिक ऋच्छति गतार्थः ।
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प्रोफेसर शुबिंग लिखते हैं- ( अ ) "दत्तं कुरो -दयो - चिंटु" के स्थान पर शब्दावलि अधिक उपयुक्त हैं।
१ देखिये भगवती सूत्रशतक १५. २ सभासियाई जर्मन प्रति पृष्ठ ५७.
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'अंकुरायाप्युदयो न दत्तो येन विद्धे
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