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चतुर्थ अध्ययन मोनिता पनि गुण निगजिन
ण से पत्तायताऽचोरे, ण से इत्तवताऽमुणी ॥ १४ ॥ - अर्थ-स्थूल-दृष्टि जनता कमी चोर की भी प्रशंसा करती है और कभी कमी नुनि को उस के द्वारा धृणा भी मिलती है किन्तु इतने मात्र से चोर सन्त नहीं बन आता और रान्त असन्त नहीं हो सकता । गुजराती भाषान्तर:
સ્થાષ્ટિવાળી જનતા ક્યારેક ચોરની પણ પ્રશંસા કરે છે અને ક્યારે ક્યારે તે મુનિને પાણ કણાની દૃષ્ટિથી જુવે છે. પણ એટલા માત્રથી કોઈ ચોર સખ્ત બની જતો નથી અને સંત તે ચોર થઈ જતો નથી. ___ साधक अपने आप को बाहिरी आँखों से तौलने का प्रयक न करें। दुनिया की निन्दा और प्रशंसा के गज से अपनी अच्छाई और बुराई को न मापे । क्योंकि दुनियाँ के गज दूसरे को मापने में कभी कभी गलती भी कर बैठते हैं। दुनियाँ की आँखों में जो सन्त है उपरी तद्द को चीर कर भीतर झांकने पर वह एक चोर भी निकल सकता है और दुनियाँ जिसे बोर मान कर जिस पर घृणा बरसा रही है। बाहर से जिस का जीवन सूखा रेगिस्तान दिन्जलाई दे रहा करुणा के हल्के हाथों उपर का कठोर आवरण हटाने पर अन्तर में वर दया प्रेम और करुणा का क्षरना भी बहता हुआ दिखाई दे सकता है।
णण्णस्त वयणा चोरे, णपणस्स वयणा मुणी॥
अप्पं अप्पा वियाणाति, जे या उत्तमणाणिणो ॥ १५॥ अर्थ:-किसी के कथनमात्र से कोई बोर नहीं बन जाता और किसी के कहने से कोई सन्त नहीं बन जाता। अपने आप को खर्य जानता है या सर्वज्ञ जानते है। गुजराती भाषान्तर:
કોઈના કહેવા માત્રથી કોઈ ચોર બની જતો નથી અને કોઈને કહેવામાત્રથી કોઈ સન્ત પણ બની જતો નથી. આમા પોતાને પોતે જ જાણે છે કે તેને સર્વજ્ઞ જાણે છે,
किसी के बोलने से सन्त चोर नहीं बन सकता है और वोर सन्त नहीं। अपनी यथार्थ स्थिति व परिस्थितियों को हम जानते हैं यह वे अनन्तज्ञानी जानते हैं।
जद मे परो पसंसाति, असाधु साधुमाणिया ॥
न मे सातायए भासा, अपाणं असमाहितं ॥ १६ ॥ अर्थ:-यदि मैं मसाधु हूँ और साधु मानकर वूसरा मेरी प्रशंसा करता है, यदि मेरी आत्मा असयत है तो यह प्रशंसा की मधुर भाषा मुझे संयत नहीं बना सकती। गुजराती भाषान्तर:
અગર હું સાધુ છું અને બીજે સાધુ માનીને મારી પ્રશંસા કરતે હોય અને જે મારો આત્મા સંયમમાં ન લેમ તો બીજાની આ પ્રશંસાની ભાષા મારી વિકાસ કરી શકશે નહિ!
यदि साधक के जीवन में संयम का अभाव है किन्तु खार्थ या अंधश्रद्धा से प्रेरित जनता यदि एक सन्त के रूप में उनका सन्मान करती है, वह घद्धा के सुमन मी बरणों में चढाती है, केन्तु वे प्रशंसा के फूल असाधु को साधु के स्प में बदल देने में असमर्थ रहेंगे। प्रशंसा के फूलों में कभी साधक का मन फिसलन का अनुभव करता है तो अईतर्षि उसे सावधान करते हैं
। जति मे परो विगरहाति, साधु संत णिरंगणं ।
ण मे सकोसप भासा, अप्पाणं सुसमाहितं ॥ १७ ।। अर्थ :-यदि मैं निर्धन्य हूँ और जनता मेरी मरमानना करती है तो निन्दा की यह भाषा मुम में साक्रोश नहीं पैदा कर सकती है, क्योंकि मेरी आत्मा सुसमाधिस्थ है।