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________________ इसि-भासियाई - गुजराती भाषान्तर: જો હું સાધુ છું અને લોકો મારા પ્રત્યે ઘણા કરે છે, તો પણ મને ચિન્તા નથી; કેમકે તે નિદાની ભાષા મને ક્રોધ ઉપજાવી શકે નહિં; કારણકે મારશે મા સમાધિમાં છે. यदि गाधक में गाधुभाव हैं तो फिर बाहिरी दुनियाँ भले ही असाच समझकर निन्दात्मक आलोचना क्यों न करे, जरासे साधक कभी क्रुद्ध न होगा। प्रशंसा के फूल साधु के मन में गुदगुदी नहीं पैदा कर सकते, न निन्दा के सूल उस के मन में टीस ही पैदा करेंगे। निन्दा और प्रशिक्षा में साधक की जीवनतुला सम रहती है। हर क्रान्तिकारी को निन्दा और अपमान के कहने पूँट पीने ही पड़ते है। अपमान का जहर के चूंट पीने के बाद ही शिव बना जा सकता है । यदि साधक अपने प्रति ईमानदार है तो उभे दुनियाँ की आलोचनाएँ अपने मार्ग से हटा न सकेगी। जं उल्का पसंसंति, वा निदंति वायसा ॥ निंदा वा सा पसंसा वा, वायुजालेव्य गच्छती ॥ १८॥ अर्थ:--उलूक जिसकी प्रशंसा करे और कौवे निशामिन्दा वर, पसिन्दा र मह प्रशंसा दोनों ही हवा की भाँति उड़ जाती हैं। गुजराती भाषान्तर:-- ઘૂવડ જેની પ્રશંસા કરે અને કાગડાઓ જેની નિન્દા કરે આવી નિન્દા અને પ્રશંસા હવા માફક ઉડી જાય છે, जिस निन्दा और प्रशंसा के पीछे दृष्टि का कालापन रहा हुआ है, जिसके पीछे केवल साम्प्रदायिक, स्वार्थिक ममत्व बोल रहा है, वे निन्दा और प्रशंसा तथ्य-विहीन है। उसी के लिये नुन्दर-सा रूपक दिया है । जय प्रकाश की निन्दा करता है और अंधकार की स्तुति करता श्रेष्ठ बतलाता है । और कौवा रात्री की निन्दा करता है । यह निन्दा और प्रशंसा वस्तु की अच्छाई और बुराई के प्रति नहीं है । अपने स्वार्थ की साधना अंधेरे में होती देख रात्री की प्रशंसा ही करेगा । और कौवे के साथ में क्षति होती है तो वह निन्दा करेगा ही। जं च बाला पसंसंति, जं था णिदंति कोविदा॥ वर्णदा वा सा पसंसा वा, पपाति कुरुए जगे ।। १९ ॥ . अर्थ:-अज्ञानी जिसकी प्रशंसा करता है और विद्वान जिसकी निन्दा करता है, ऐसी निन्दा और प्रशंसा इस छली दुनियों में रात्र उपलब्ध है। गुजराती भाषान्तर:- અજ્ઞાની જેની પ્રશંસા કરે અને વિદ્વાન જેની નિન્દા કરે, આ કપટી દુનિયામાં આવી નિન્દા અને પ્રશંસા સર્વત્ર મળી આવે છે. ___ अज्ञानी और भोली जनता सत्य ले अछुती रहने के अंधश्रद्धा के अंधेरे में पलती है, अतः उससे प्रशंसा प्राप्त कर लेना सहज है। विद्वानों की दुनिया में प्रशंसा उतगी सस्ती नहीं रहती, क्योंकि उनमें भावुकता का अभाव है। हाँ; आलोचना का भाव गर्म रहता है । क्योंकि दूसरे की प्रशंसा को पचा लेने के लिये आवश्यक पाचन-शक्ति का उसमें अभाव होता है । अतः इस मायाशील विर में निन्दा और प्रशंसा कदम कदम पर मिलती है, किन्तु साधक को दोनों से सावधान रहना है। साथ ही निर्भीक भी। जो जत्थ बिजती भावो, जो वा जत्थ ण विज्जती ॥ सो सभावेण सम्वो चि, लोकम्मि तु पवत्तती ॥ २० ॥ विसं वा अमतं वावि, सभावेण उपट्टितं ॥ चंदसूरा मणी जोती, तमो अम्गी दिवं खिती ॥ २१ ॥ अर्थ:-जो भार जहाँ उपलब्ध है या जहाँ जिसका अभाव है यह सद्भाय या अभाव लोक में भ्याभाविक ही है। दुनियों में अमृत भी है और विष भी है। चन्द्र और सूर्य, अंधकार और प्रकाश, मणी और अग्नि, स्वर्ग और पृथ्वी, सब कुछ स्वभाव से ही उपस्थित हैं।
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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