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चतुर्थ अध्ययन
गुजराती भाषान्तर:--
કોઈ ભાવ ક્યાંક ઉપલબ્ધ છે અને કોઈ વસ્તુ ક્યાં નથી પણ આ સદ્ભાવ અને અભાવ લોકમાં સર્વત્ર સ્વાભાવિક રૂપે જ છે. દુનિયામાં અમૃત પણ છે અને ઝેર પણ છે. ચોદ, સૂરજ, અંધારૂં અને પ્રકાશ માંણુ અને અગ્નિ, સ્વર્ગ અને પૃથ્વી અધા સ્વભાવથી જ રહેલા છે.
'विश्व की प्रत्येक वस्तु अपने २ स्वभाव में उपस्थित है हमारे चाहने या न चाहने से किसी का सद्भाव और अभाव नहीं हो जाता। दुनियाँ में अंधकार भी अनन्तकाल से है और प्रकाश भी अन्न्त काल से है । अमृत भी अनादि है और जहर भी । साधक को उलझना नहीं है। सीधी राह पर लक्ष्य की ओर कदम बढ़ाना उसका उद्देश्य हैं ।
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वदतु जणे जं से इच्छियं, किंणु कलेमि उदिष्णमप्पणो ॥
भावित मम णत्थि एलिसे, इति संखाए न संजलामहं ॥ २२ ॥
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अर्थ ः– कोई भी जो चाहे वह बोल सकता है। मैं अपने आप को उद्विन क्यों करूँ । मुझसे वह सन्तुष्ट नहीं है। यह समझकर मैं कुपित नहीं होता हूँ ।
गुजराती भाषान्तर:
કોઈ
પણ માણસ જેમ ફાવે તેમ ઓલી શકે છે, હું પોતાને કલેશમય શા માટે થવા દઉં. તે મારાથી સંતુષ્ટ નથી આ સમજીને હું કોધ નથી કરતો.
कोई भी मानव सारी दुनियाँ को प्रसन्न नहीं कर सकता, सूर्य सबको प्रकाश देता है, फिर भी घुग्घू उसकी आलोचना करेगा ही । जिसके स्वार्थ को ठेस लगेगी वह आलोचना अवश्य करेगा | उस स्थिति में नाधक अपनी मनःस्थिति गढ़वाने न दे वह सोचे दुनियाँ चाहे जो बोल सकती है यदि मैं संयम और साधना के प्रति वफादार हूँ, तो मुझे इन आलोचनाओं सेउसि नहीं होना है। मेरे द्वारा इसके स्वार्थ को सहयोग नहीं मिल रहा है, इस लिये यह मेरे पर क्रुद्ध हैं। फिर मैं क्यों इसके प्रति क्रोध लाकर अपनी शान्ति को भंग करूँ ? ।
टीका :- वदतु जनो यद् यस्येष्टं नृणवत् तव् गणयामि । किं नु करोम्यहं यज्ज्ञानेनारमस्वभावेनोदीर्णम् ? नैवारिस तस्य कर्तेति भावः । नास्तीदर्श भम भावितमिति संख्यायाहं न संज्वलाम न क्रुध्ये, किन्तु अनस्य आक्षेपं क्षमे । तु "ल" श्रुति गर्भ वैतालियमम्यस्य कस्यचिद् कवेः कृतिरिन हयते ।
जिसको जो इष्ट है वह बोल सकता है। उसे मैं तृणवत् गिनता हूँ। उसे जानकर मैं अपने आपको उदीर्ण क्यों करूँ ? | मैं उसका कर्ता नहीं हूँ और न मेरा ऐसा बुरा करने वाला कोई विचार ही है। यह सोच कर मैं उन पर कुपित नहीं होता हूं । अतः जनता के आक्षेप को मैं सहूँगा । "ल" श्रुतिवाला यह वैतालिक ( छंद ) किसी अन्य कवि की कृति होना चाहिये ।
अक्खोवंजण माताया, सीलवं सुसमाहिते || अप्पण धमप्पाणं, चोदितो वहते रहं ॥ २३ ॥
अर्थ :- अप्रवचन माता रूप अक्ष ( रा ) से युक्त शीलवान मुसमाहित आत्मा का रथ आत्मा के द्वारा प्रेरित होकर चलता है ।
गुजराती भाषान्तर:
આફ પ્રવચન માતા (પાંચ સમિતિ ત્રણ ગુપ્તિ ) રૂપ અહ્ન ( ધુરા ) સહિત શીલવાળો ચુસમાધિસ્થ આત્માનો રથ આત્મા દ્વારા જ પ્રેરાઈને ચાલે છે.
जीवन भी एक रथ है जिसकी धुरी में अष्टप्रवचन माता ( पांच समिति तीन गुप्ति) का तेल लगा हुआ वह अपनी गति पर स्वतः प्रेरित होकर आगे बढ़ता है।
सीलफ्खर हमारूढो, णाण-सा सारही ॥ अप्पणा चैवमप्पाणं, जदित्ता सुभमेहती ॥ २४ ॥ पर्व से बुजे मुत्ते०
तार्थ ।