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________________ इसि-भासियाई अर्थ:-शील ही जिसका अक्ष है, ज्ञान और दर्शन जिसके सारथी है, ऐसे रथ पर आस्ट होकर आत्मा अपने द्वारा अपने आपको जीतता है और शुमस्थिति को प्राप्त करता है। गुजराती भाषान्तर: સીયલ જેની ધુરા છે અને જ્ઞાન અને દર્શન જેના સારથી છે, એવા રથ ઉપર બેસીને આત્મા પોતે પોતાને જીવે છે અને શુભ સ્થિતિ મેળવે છે. ब्रह्मचर्य की सुहत धुरा और ज्ञान दर्शन जैसे कुशल सारधी को पाकर शुभ आत्मपर्याय अशुभस्थित आस्मपर्याय से युद्ध करता है और शुद्ध रूप को प्राप्त करता है। यहां जीवन युद्ध का चित्रण दिया गया है । आत्मा बाहिरी संघर्ष अनन्त २ वार कर चुका है। उसमें तलवार के बल पर उसने विजय भी पाई, किन्तु एक दिन बद्द पराजय के रूप में बदल जाती है। विश्व विजेता अपने घर पर शासन नहीं चला सकता । और गृह-विजेता अपनी इन्द्रियों पर शासन नहीं चला सकता । इन्द्रिय-विजेता के लिये शुभ आत्मपरिणति पर विजय पाना कठिन है। उसी अशुभपरिणति से युद्ध के लिये साधक को प्रेरित किया है। पश्चीसवाँ गाथा में रथ का रूपक दिया है, उसी रथ पर आरूढ़ होकर ब्रह्मचर्य की सुदृढ धुरा बनाकर युद्ध के लिये आगे बढ़े। यहां विजय के रूप में शुभस्थिति का वर्णन किया है। आत्मा की अशुभस्थिति पापाश्रव है, शुभस्थिति पुण्याश्रव है, किन्तु आत्मा की शुद्धस्थिति निर्बन्ध है, उसी की ओर यहां इंगित है, किन्तु आगम में शुद्धस्थिति के लिये प्रायः शुभ ही प्रयुक्त हुआ है। आत्म-युद्ध का रूपक उत्तराभ्ययन भी दिया गया है। इन्द्र के उत्तर में राजर्षि नमि आत्म-युद्ध का विस्तृत सांग रूपक देते हैं। चउथ अंगिरिसिणामझयणं । ॥ चतुर्थ अध्ययन समाप्त ॥ १ उत्तरा अ०९ गाथा २०-२२
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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