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उनतीसर्वा अध्ययन एगे जिए जिया पंच, पंच लिए जिया वस । सहा मिर्ग, सम्वाससजिनामई ॥
-सराध्ययन २३ ।, गाथा ३६ मानव का मन भी एक युद्धभूमि है। जहा हमेश शुभ और अशुभ का युद्ध चलता है। हमारे भीतर राम भी है और रावण भी। विजय उसी की होती है जिसके पास सेना विशाल है। सदनिया राम की ओर से लड़ती है ओर असदतियां रावण के नेतृत्व में युद्ध करती है। अन्तर के इस युद्ध में विजय पाने के लिये विवेक रूपी इस्ति पर आरूढ़ होना होगा। शुभ संकल्प और प्रशस्त अध्यवसाय रूप शन्नों को ग्रहण करना होगा और युद्ध में उतरे हुए सैनिक का अदम्य उत्साह होगा तो विजय हमारे साथ है।
जिसा मणं कसाए या जो सम्म कुरुते तवं।
संविप्पते स सुद्धप्पा अग्गी वा विसाहुते ॥ १७ ।। अर्थः-मन और कषायों पर विजय पाकर जो साधक तप करता है वह शुद्धात्मा हविष ( होम के योग्य पदार्थो) से आहुत अग्नि की भौति देदीप्यमान होता है। गुजराती भाषान्तर:
જે મન અને કષાય ઉપર કાબુ (જય મેળવીને સાધક તપસ્યાનું આચરણ કરે છે તે પવિત્ર આત્મા હવિસ (યનમાં અર્પણ કરવાના દ્રવ્યો)થી હવન કરેલા અગ્નિની જેમ તેજ:પુંજ બની જશે.
इन्द्रिय-जय के लिये साधक तपः साधना करता है, किन्तु उसकी साधना में फल तमी लग सकते हैं जब कि वह कषाय और मन पर विजय पा ले। कषाय और साधना दोनों साथ चल नहीं सकते। क्योंकि तप और कषाय का मेल नहीं होता। पर आज तो बळी गंगा बह रही है। तपस्वी मधकों का मन भी एकदम-तप अहता है और लोग भी कह उरते हैं, तपस्या के साथ तेजोलेल्या होती है, दोनों का.मेळ है। पर यह तो गलत-जोष है। दूध और शक्कर का मेल हो सकता है पर दूध और नमक का भी कहीं मेल हुआ है ? आठ आठ उपवास करने के बाद भी जरा सी ठेस लगती है उबल पड़े और कहने लगे पाठ उपवास हुए तो क्या हुआ? आठ को तो पढाइ सकता हूं तो कहना होगा तन को तपा है, साथही मन मी तप गया पर साधना उम्मल नहीं हुई। तप के साथ समता का साहचर्य हो तभी साधक की साधन मैं फलवती हो सकती है और साधक की धात्मा हवि की आहृति प्राप्त अभि की भांति उज्वल और समुज्वल हो सकती है।
सम्मस-गिरतं धीरं दंतकोहं जिर्ति दियं ।
देवा वि ते णमंसंति मोक्खे घेव परायणं ॥ १८ ॥ अर्थ:-सम्यक्त्व में निरत धैर्यशील क्रोध विजेता और जितेन्द्रिय और मोक्ष ही जिसका एक मात्र लक्ष्य है ऐसे साधक को देवता भी नमस्कार करते हैं। गुजराती भाषान्तर:--
સમ્યકત્વમાં મગ્ન, ધીરજવાળા અને ક્રોધ ઉપર કાબુ મેળવેલા, જિતેંદ્રિય તેમજ જેનું એકમેવ એય મોક્ષ છે એવા સાધકને દેવતાઓ પણ પ્રણામ કરે છે.
जिस साधक ने सत्य का प्रकाश पा लिया है और तत्व का रहस्य पा चुका है, ऐसा सम्यक्त्वशील साधक कोष पर विजय पा सकता है और इन्द्रियों का संयम कर सकता है और जिसकी साधना एक मात्र मोक्ष को लक्ष्य में लेकर हो रही है ऐसे साधक के चरणों में देवगण भी नत मस्तक हो जाएं तो कोई आश्चर्य नहीं होगा।
__ सब्वत्थविरये दंते सध्वचारीहिं वारिए ।
सव्यदुक्खप्पहीणे य सिद्धे भवति णीरये ॥ १९॥ अर्थ:-सर्वार्थों से अयवा सर्वत्र विरत दमनशील साधक, सर्वत्र घूमने वाली इन्द्रियों को रोक कर समस्त दुःखों से मुक्त होता है और कमरज रहित सिद्ध होता है।
१बारीहि.