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________________ १९० इसि - भासियाई किया किया वेति । तं जहा पाणातिवातेणं जाव परिगणं । एस खलु असंवुद्धे असंतुडकम्मं बाउजा में नियंठे अट्ठविहं कम्मगंदि गगरेति । सेय चउहिँ ठाणेहिं विचागमागच्छति । तं जहाइहि तिरिक्खजोणीहिं, माणुस्सेहिं देवेहिं । अर्थ :- गति के दो प्रकार हैं। प्रयोगगति और बिमागति, जोकि जीव और पुद्गल दोनों की होती है। औदयिक और पारिणामिक रूप गतिभाव में गति होती है उसे गति कहते हैं । जीव ऊर्ध्वगामी होते हैं जब कि पुद्गल अधोगामी होते हैं। पान कर्म करनेवाले जीनों के परिणाम में जीवों की और पाप कर्म उत्त आत्मा पुगलों की गति में भी प्रेरक होता है । यह प्रजा कभी भी अदुःख अवस्था को पार नहीं करेगी। आत्मा स्वाधीन अवस्था में कमों को करके स्वकृत कर्मों को भोगता है। जैसे कि यात्सेन्तथा चातुर्याम से रहित अष्टविध कर्म की है। वहीं कर्म चार प्रकार से विपाक रूप प्राप्त करता है। जैसे कि नरक के द्वारा तियंन योनियों के द्वारा मनुष्यों के द्वारा और देवों के द्वार। । गुजराती भाषान्तर: ગતિના બે ભેદ છે. એક પ્રયોગતિ અને બીજી વિઅસામતિ, જે જીવ અને પુદગલ બંનની હોય છે, આદાયિક અને પારિણામરૂપને ગતિભાવમાં ગતિ હોય છે તેને જ ગતિ કહેવાય છે. જીવ ઉર્ધ્વગામી હોય છે અને પુદ્ગલ અધોગામી હોય છે. પાપ કર્મો કરવાવાળા જીવોના પરિણામમાં જીવોની ગતિમાં અને પાપકર્મ કરનાર આત્મા પુદ્દગલોની ગતિમાં પણ પ્રેરક બને છે. આવી પ્રત્ન કદી પણ દુઃખરહિત અવસ્થાને પામી શક્તી નથી. આત્મા સ્વાધીન અવસ્થામાં કર્યાં કરે છે અને પછી કે કર્મોના શુભાશુભ પરિણામને લાગે છે. જેમ કે પ્રાણાતિપાતથી પરિગ્રહસુધી. તે અસદ્ધ, સંવૃત્ત કમાન તેમજ ચાતુર્યંમરહિત ચાર તરહના કર્મધિઓને બાંધે છે. નરકદ્વારા, તિર્યંચયોનિદ્વારા, મનુષ્યદ્વારા અને દેવો દ્વારા એમ ચાર તરહી વિપાકલ્પ કર્મ પ્રાપ્ત કરૅ છે. गति के दो प्रकार हैं । प्रायोगिक गति और प्रायोगिकगति है । जब ये अन्य द्रव्य की प्रेरणा के स्वाभाविकगति कहलाती है । विगति । दूसरे के द्वारा आत्मा और पुल गति करते हैं वह बिना ही स्वयं ही गति परिणत होते हैं तब वह गति विवसा अर्थात् गति हैं, क्योंकि उसमें कर्म की प्रेरणा रहती है। मुक्तामा की गति, करता है उसमें किसी की भी प्रेरणा नहीं होती । कर्मबद्ध कर्म बद्ध आत्मा जो भी गति करता है वह प्रायोगिक वैसिक है, क्योंकि कर्म से मुक्त होकर आत्मा जब ऊ आत्मा की गति औदयिक होती है। क्योंकि कमदय के कारण ही उसे चतुर्गति में भटकना पड़ता है। पाप कर्मशील आत्मा गति करता है और वह स्वयं पुलों को मति के लिये प्रेरित करता है। जीव स्वकृत कर्मों को ही भोगता है। भगवतीसूत्र में भी महान संत गौतम प्रभु महावीर से प्रश्न करते हैं- प्रभो। आत्मा स्वकृत कर्म भोगता है, परकृत भोगता है यादुभयकृत उत्तर में सर्वज्ञ भ० महावीर बोले- यह आत्मा स्वकृत कर्मों को ही भोगता है, परकृत या तदुभयकृत नहीं । आचार्य अमितगति भी बोलते हैं:-- स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा, फलं तदीयं लभते शुभाशुभम् । परेण दक्षं यदि लभ्यते स्फुटं स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं सदा । प्रार्थनापंच विंशति आत्मा पूर्वबद्ध कृतकमी के ही शुभाशुभ फल की प्राप्त करता है। यदि वह परकृत कर्मों को भोगता है तो स्वत कर्म निरर्थक हो जायेगा। इतना ही नहीं अपना नियामक यह स्वयं न रहेगा। अपने सुख दुःख के लिये वह स्वयं उत्तरदायी न रहेगा । सुख के लिये उसे दूसरे से भीख मांगनी होगी, यह कितनी बड़ी गुलामी होगी । आत्मा जो भी शुभाशुभ कर्म करता है वह नरकादि चार गति के रूप में भोगता है । टीका ः– केचित्तु पठन्ति द्विविधा गतिस्तद्यथा - प्रयोगगतिः स्वेच्छया गतिः चित्रसागतिस्तद्विपरीता जीवानां च पुलानां चेति । को वा गतिभावः अनादिको निधनो गतिभावः । पाठान्तरं तु यथौदयिकपारिणामिको गतिभाव इति । १ ( १० ) जीवा भन्ते ! अत्तक दुक्तं वेद्यंति परक दुक्खं वेदवति तदुभयकडे दुक्खं वेदयन्ति (१०) गोयमा जीवा अत्त कई वैदति णो परको तदुभयकई दुकाने वेदयति । मंगवती सूत्र-
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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