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________________ एकतीसवा अध्ययन केन वार्थेन गतिरिति ? प्रोच्यते गम्यत इति गतिः । अन्ये तु गम्यमाना इति गतिरिति पठन्ति । इमानि चत्वारि पाठान्तराप्यस्याध्ययमस्यान्ते गतिव्याकरणग्रन्थात् प्रमृति सामिनं ति यावदयं द्वितीयपाटो दृश्यते इति प्रवेशितानि । स एवं द्वितीयः पाठोडनुबध्यते यथेष खरवसंबुद्धोऽसंवृतकर्मान्तः सचनुामिको निम्रन्थोऽष्टविधं कर्मप्रन्यि प्रकरोति, सच चतुपु स्थानेषु विपाफमागच्छति तद् यथा गैर्य केषु तिर्यक्क्षु मनुजेषु, देवेषु । गतार्थः । विशेष टीकाकार ने विविध पाठान्तर के साथ प्रस्तुत प्रकरण को स्पष्ट किया है। असकडा जीवा नो परकड़ा किया किचा वेदेति । तं जहा पाणातिवातवेरमेणेणं जाय परिग्गहवेरमणेणं । एस खलु संघुड़े कम्मते चाउजामे नियंठे अट्टविहं कम्मगठिं नो पकरेति । से य चउहिं ठाणेहिं णो विपकमागच्छति । तं जहा जेरइए हिं निरिक्खजोणिहि माणुस्सएहिं देवेहि। अर्थः-जीव स्वाधीन रूप से खऋत शुभाशुभ कर्मों को करके उसका प्रतिफल वेदन करते हैं। किन्तु परकृत कर्मों का वेदन नहीं करते । प्राणातिपात विरकि यावत् परिग्रह विरक्ति के द्वारा यह सेवृत, कर्मों का अन्त करनेवाला चातुर्याम धर्म का आराधक निर्ग्रन्थ अष्टविध कर्म अन्थि को बांधता नहीं है और वह कर्म चार रूप में विपाक को भी प्राप्त नहीं करता जैसे कि नारकों के द्वारा तिर्यचों के द्वारा मनुष्यों के द्वारा और देवों के द्वारा। गुजराती भाषान्तर: જીવ સ્વાધીનરૂપથી પતે (શુભાશુભ) કમો કરે છે ને તેનો પરિણામ પણ ભોગે છે. પણ બીજાએ કરેલ કર્મોને ગ કર નથી. પ્રાણાતિપાત વિરક્તિયાવત્ પરિગ્રહ વિરક્તિથી જ આ સંવૃત કમનો અંત કરનાર ચાતુર્યામ ધર્મનો આરાધક નિગ્રંથ, આઠ તરહની કર્મગ્રંથિને બાંધતો નથી, અને તે કર્મ ચાર૫માં વિપાકને પણ પામે નહી, જેમ કે નારક કે તિર્યંચો કે મનુષ્ય કે દેવો દ્વારા.. पूर्वसूत्र में असंयत साधक का रूप बताया गया था। जिस साधक ने कपदे त्यागे हैं किन्तु वासना नहीं त्यागी वह अपनी वृत्तियों को काबू में नहीं ला सकता और वह सही रूप में व्रतों की मर्यादा में भी नहीं रह सकता, परिणामतः कर्मी का अम्ल करके आत्मा की शुद्धि स्थिति को भी नहीं पा सकता। उसे पुनः पुनः भारकावि रूप ग्रहण करने होंगे। प्रस्तुत सूत्र में उसका विरोधी चित्र है। जो साधक रूप और राग दोनों का स्वामी है जिसने वनों की भांति वासना भी त्याग दी है वह अपनी इन्द्रियों पर और मन पर विजय पा सकता है। कर्मों का अन्त कर आत्मा के निज घर में पहुंच राकता है उसे किर नारकादि रूप धारण करने की भावश्यकता नहीं रहती। टीका:-आयमकृतज्जीवा न परकृताः कृत्वा कृत्वा वेदयन्ति, तद् यथा प्राणातिपातचिरमणेन यावत् परिग्रहविरमणेन । एष खलु संबद्धाः संवृतकान्तिश्रातुर्यामिको निर्गन्धोऽपविध कर्ममान्थिन प्रकरोति । स च प्रागुक्तेषु चतुर्प स्थानेषु न चिपाकमागच्छति । श्रादिपाठस्तु मिथ्यावर्शनविरमणेनेति प्रभूत्यनुबध्यते । गतार्थः । विशेष प्रस्तुत पाउ मिथ्यादर्शन विरमण से सम्बन्धित्त है। लोय. ण कताई णासी, ण कताई ण भवति, ण कताई ण भविस्सति, भुर्विच भवति य भविस्ताति य धुवे सासए, अक्खर, अन्धग अविट्रिप णिच्चे कयातिणासी जावणिचा एवामेघ लोके यि ण कयाति णासी जाणिवे। अर्थ-यह लोक कभी नहीं था, ऐसा नहीं है । यह कभी नहीं है ऐसा भी नहीं है । कभी नहीं रहेगा यह भी संभव नहीं है । यह लोक पहले था वर्तमान में है और भविष्य में भी रहेगा। क्योंकि यह लोक ध्रुव है, नियत है, शाश्वत है, अक्षय है, अव्यय है, अवस्थित और नित्य है। जैसे कि पंचास्तिकाय कभी नहीं थे ऐसा नहीं है । यावत् लोक नित्य है। इसी प्रकार लोक मी कमी नहीं था ऐसा नहीं है यावत् नित्य है । गुजराती भाषान्तर: આ લોક (ભૂતકાળમાં) કદીપણું ન હતો, એવું નહીં આ કદીપણ નથી એમ પણ નહીં અને ભવિષ્યમાં ) પણ રહેશે એવો સંભવ પણ નથી. આ લોક પ્રથમ હતો, આજે છે, અને ભવિષ્યકાળમાં પણ રહેશે; કારણ આ લેક ધ્રુવ (નિત્ય) છે, નિયત છે, શાશ્વત છે, અક્ષય છે, અય છે, અવસ્થિત છે અને નિત્ય છે. એવી જ રીતે લેક પણ કદી પણ ન હતો એમ નહીં, તે હમેશા નિત્ય છે.
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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