________________
1.
इस - भासियाई
प्रस्तुत पाठ में टोक की शाधतता बताई गई है। यद्यपि पर्याय की अपेक्षा से तो लोक प्रतिक्षण विनष्ट भी हो रहा है और नया उत्पन्न भी हो रहा है किन्तु यहां इनकी की गई है। अनंत अनंत काल पूर्व भी लोक लोकभाव में विद्यमान था। वर्तमान में भी उपस्थित हैं और अनंत अनंत युग बीत जाने पर भी लोक विद्यमान रहेगा । लोक पंचास्तिकायात्मक है । धर्माधर्म आकाश पुल और जीन के अतिरिक्त कोई लोक नहीं हैं। पंचास्तिकाय नित्य है तो लोक भी नित्य है ।
।
१९२
टीकाः यथा किन्तु जीवाः शातनां नाशनां चेदनां वेदयन्ति । यो यद् अर्थ यद्वस्तुनो विभेति तत् तेन समुच्छेअर्थात् स एव समुत्थास्यति निष्ठितकरणीयः । महादत्ति मृतादी माशुकमोजी, उपलक्षणत्वादेणीयादीति व्याख्या प्रज्ञप्तिस्यनुसारेण व्याख्येयं । गतार्थः ।
स्पर्शुकेति स्थाने सु प्राशुकत्ययुक्तं प्रवदन्ति वृत्तिकारानुयायिन्दः । मृतादिनिर्ग्रन्थो निरुद्रप्रपंचो व्यवच्छि संसारो संसारवनीयः । प्रहीणसंसारः प्रहीणसंसारवेदनीयो संसारमार्गान् न पुनस्यत्रयं समागच्छति पार्श्वयमध्ययनम् ।
तार्थः ।
द्वितीयास्तु समाप्यते यथा लोको न कदाचिन्नासीत् न कदाचिन्न भवति, न कदाचिन्न भविष्यति अत्रभवति च भविष्यति च ध्रुवो नित्यः शाघतोऽनमोऽव्ययोऽवस्थितो नित्यो भत्रति यथा नाम पंचास्तिकायः न कशाविवासन इत्यादि । एवमेव लोकोपि । समास पाठान्तरम् ॥ गतार्थः ।
विशेष भडाई निर्वठे के प्रकरण में स्पर्श के स्थान पर प्राक शब्द है किन्तु टीकाकार के अनुयायी उने अयुक्त समझते हैं।
टिप्पणी : इस सूत्र के समस्त अध्ययनों की अपेक्षा प्रस्तुत अध्ययन में सर्वाधिक पाठान्तर हैं। मूलकार की अपेक्षा टीकाकार ने और भी अधिक पाठान्तर दिये हैं। अतः मूलकार और टीकाकार दोनों साथ नहीं चल सके हैं । परिणामतः कहीं कहीं टीका मूल से बहुत दूर जा पड़ी है।
प्रोफेसर शुगि टिप्पणी देते हुए लिखते हैं
प्रस्तुत प्रकरण के प्रारंभ में कुछ भार हैं । दुहरे इन्द्रिवज्ञान के लिये वहां अवकाश है । आध्यात्मिक असर का निश्चित प्रारंभ है । आत्मा स्वयं ही अपने द्वारा सुखादि उत्पन्न करता है। कोई भी बाहरी वस्तु उसे मुख या दुःख देने में असमर्थ हैं । ( आत्मकृतः जीवः, न परकृतः )
पंक्ति नं. ४२ के बाद प्राणातिपात शब्द के बाद खोज करने पर ऐसा लगता है कि वहां कुछ रिक्त स्थान हैं। उसके बाद शीघ्र ही "वैरमण " शब्द आ जाता हैं। जो कि ठीक नहीं है। दूषित कार्य और उनका त्याग ३६ वीं पंक्ति में दिखाई देता है । किन्तु वह प्रामाणिक किये गये सिद्धान्त के विरुद्ध है और प्राणी दुःख का अनुभव करता है । ( सतन ) ऐसे विरोधाभास से संबंधित है जोकि मूल पाठ में नहीं है ।
यदि धारे हुए क्रियापद ( समुच्स्यित्ति और समुत्थित्स्यति ) ठीक है तो उनका अर्थ यह होगा कि जिससे वह डरता है उनको दूर करेगा। किंतु "ते" शब्द वहां नहीं है । और अपने आपको उच्च स्थिति में लाएगा। यहां हम पंचमी विभक्ति संसार मार्गात का जोड़ सकते हैं। किन्तु व्याख्या प्रशमि सूत्र बताता कि "निति करणले महा” पाठ उससे
म नहीं कर सकते। टीका के अनुसार मडाई मृतादी है, जोकि मृतक को निर्जीव को खाता है। अपने जीवन के लिये किसी की हिंसा नहीं करता और धर्म क्रिया अनुरूप चलता है। किन्तु "मडाई" का "म" हम कहां से खोज सकते हैं यह समझ मैं नहीं आता। शायद ही हम अम्मड ( अम्बड ) का अन्त में विचार कर सकें 1
"लोए" आदि यहां फिट नहीं बैठता। वह चौथे पक्ष के उत्तर में ठीक रहता ।
एवं से सिद्धे बुद्धे । गतार्थः । इति एकतीसवां अध्ययन समाप्त
40+
१ मडाई णाम यिण्टे निरुद्धभवे,
बेयणिज्ज, गिडिंय अटके मिडिय भट्ट करणिज गो पुणरति इत्थत्थं हन्यमागच्छति ।
२ प्रतिभासिया जमैन प्रति ५ पृ० १६८
निरुद्धमनपर्वचे, पहीणसंसारे पहीणसंसारवेज, तोणिसंसारे संसार - विवाह १-१-६.