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पिंग अर्हतर्षि प्रोत बत्तीसवाँ कृषि - अध्ययन
शरीर और आत्मा अनादि के सहयात्री हैं। शरीर के लिये भोजन आवश्यक हैं तो आत्मा गी भूखा नहीं रह सकता । "उसे भी भोजन तो चाहिये । किन्तु हो, आत्मा का भोजन शरीर के भोजन से भिन्न अवश्य होगा। किसी विचारक ने ठीक कहा है 'शरीर का भोजन अन है, तो आत्मा का भोजन अहिंशा है'।
शरीर की खुराक के लिये खेती आवश्यक है तो आत्मा के भोजन के लिये भी खेली चाहिये; किन्तु वह खेती मिट्टी की नहीं मन की होगी ।
फिर भी मानव मिट्टी को भूल कर जी नहीं सकता। क्यों कि शरीर की भूख मिट्टी ही मिटा सकती हैं। उसके लिये जुआर के दाने चाहिये, स्वर्ग के मोती नहीं ।
शरीर और आत्मा साथ रह सकते हैं तो अहिंसा और खेती साथ क्यों नहीं रह सकते ? जो खेती को एकान्ततः पाप बताते हैं उनके लिये रोटी खाना भी पाप हैं। खेती यदि महारंभ है वो मांसाहार क्या होगा ?
खेती संस्कृति का निर्माण करती है। वह सात्विक अन्न देकर मानव के मन को सात्विकता की ओर मोड़ती है। खेती अकेला व्यक्ति नहीं कर सकता, उसमें दूसरे के सहयोग की आवश्यकता अनिवार्यतः रहती है। इस रूप में वह सहयोग का पाठ भी पढ़ाती हैं। जिस देश में खेती नहीं है वहां के निवासी भांसाहार की ओर ही बढ़ेंगे। पशुबध के द्वारा प्राप्य मांस मानव मन की सहज कोमलता को छीन लेता है और करुणा के अंकुरों को नष्ट कर डालता है। पशुओं की गर्दन पर प्रतिदिन चलनेवाला छुरा आवेश में मानव की गर्दन काटते हिचकता नहीं है। दूसरी ओर उसमें सहयोग भाव का प्रसार भी नहीं हो सकता। क्योंकि शिकार के लिये दूसरे के लिये दूसरों की आवश्यकता भी कम रहती है। खेती का विकल्प मांसाहार ही हो सकता है दूसरा नहीं और खेती को पाप ( महारंभ ) बताने वाले इस तथ्य से आंख नहीं मूंद सकते । भ० महावीर ने कभी भी खेती को महारंभ नहीं बताया, अन्यथा वे अपने उपासकों को कृषि कर्म के परित्याग की प्रेरणा देते। क्योंकि श्रावकत्व और महारंभ में मूलभूत विरोध है, इसीलिये उन्होंने अपने उपासकों को महारंभ के व्यवसायों के परित्याग की प्रतिज्ञा दिलवाई थी ।
फोडी कम्मे (स्फोटि कर्म ) के आधार पर खेती को महारंभ कहनेवाले अभी ऊपरी सतह पर ही हैं, क्योंकि हल के द्वारा हल की रेखा स्फोटकर्म है तो सुरंग आदि में होनेवाले धड़ाकों को क्या कहेंगे ? । किन्तु कुछ तो पुराने तत्वज्ञ दाल पीसने के को भी स्कोरकर्म में गिनकर अपनी प्रतिभा का परिचय देते हैं। किन्तु इस यंत्रयुग में बेचारी विधवाओं के दाल पीसने के धंधे को महारंभ कहकर वास्तव में अपनी बुद्धि का प्रदर्शन ही करते हैं ।
खेती करना पाप ( महारंभ ) है तो रोटी खाना भी पाप है। फिर भी हमें इतना विवेक तो रखना होगा कि हम शरीर को खुराक में आत्मा का भोजन न भूल जाने मानव रोटी दाल का यंत्र न रह जाय । मिट्टी में पलकर भी हमें अमरत्व की ओर बढ़ना है, पृथ्वी पर रहकर भी अपार्थिव से प्रेम करना सीखना है। इसी संकेत पर अर्द्धतर्षि दिव्य खेती का संदेश देते हैं।
दिवं भो किसि किसेजा, णो अपिणेजा पिंगेण महणापरिष्वायपणं अरदता इसिणा बुद्दते । अर्थ :- हे साधक ! तू दिव्य खेती कर उसे छोड़ नहीं । ब्राह्मण परिवाजक पिंग अर्हतर्षि ऐसा बोले । गुजराती भाषान्तर :
સાધક ! તું દિગ્ન્ય ખેતી કરવા શરૂ કર્યા પછી કોઈ પણ કારણને લીધે છોડો નહીં. એમ ગ્રાહ્નણ પરિવ્રાજક पिंग तर्षि मो.
पिंग अर्ष के सम्बन्ध में वहां एक परिचय सूत्र मिलता है। वे ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए थे और बाद में परिमाजक बने थे। परिव्राजक के रूप में अहत्य प्राप्त क्रिया था ।
१ पनसरकम्मादाणाई जाणियचा न समायरियच्वा । उपासक दशा ।
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