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इसि मासियाई
जिसे नष्ट प्राप्त हो चुकी है फिर बाहरी देश उसके विकास में बाधक नहीं हो सकता। जैनधर्म ने एक दिन आघोषित किया था कि कोई भी लिंग या वेश सत्यपि पाने में बाचक नहीं हो सकता । वह देश या रूप को नहीं पूछता; वह तो इतना ही पूछता है क्या आपको सत्यदृष्टि मिल चुकी हैं ? फिर किसी भी रूप में रहो तुम साधना के पथ पर हो । तिद्विप्राप्ति के पन्द्रह मार्गों में अन्यलिंग सिद्ध को स्वीकार कर जैन दर्शन बहुत बड़ी विचार क्रान्ति का परिचय देता है
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स्वयं भगवान् महावीर के युग में बहुत से ऐसे साथ थे जिनका वेश और क्रियाकाण्ड दूसरी संप्रदाय का था, किन्तु अन्तर से प्रभु महावीर के भक्त थे, इसी लिये अन्तर्दृष्टा भगवान् महावीर ने उन्हें अपनाया ही नहीं श्रावक के रूप में स्थान भी दिया। अखंड पाराजक ऐसा ही साधक था जिसने परित्राजक के रूप में ही भगवान महावीर की उपासना की थी । भगवान महावीर की देशना ने इन्हें काफी प्रभावित किया था, फिर भी वे अपने परंपरागत वेश का मोह छोड़ नहीं सक को भगवान महावीर ने कहा मुझे मिलने में वेश दीवार नहीं बन सकता ।
अपंग भी ब्रह्मण परिव्राजक थे और उन्होंने उसी रूप में दृष्टि भाई थी, इसीलिये सूत्रकार ने निशेष रूप से दन गरिचय दिया है जोकि जनदर्शन की विशालता का परिचायक हैं।
ही अतर्षिपिंग दिव्य खेती की प्रेरणा दे रहे हैं। अनंत युग बीते पार्थिव खेती करते, अब जरा आश्मिक खेती की ओर लक्ष्य दे। वह सूनी पड़ी है। एक कण भी उसमें बोया नहीं गया है। छच्चीसवें अध्ययन में मातंग अर्हतषि गी इन्हीं शब्दों में दिव्य कृषि का उपदेश देते हैं। उत्तराध्ययन सूत्र के बारहवें अध्ययन में भी आत्मिक खेती का संकेत मिलता हैं। पाक कुलोत्पन्न हरिकेशी मुनि ब्राह्मण कुमारों को कहते हैं
कृषक जिस भावना को लेकर उब भूमि में बीज बोते हैं उसी भावना से निध भूमि में भी बीज डालते हैं, इसी था से तुम मुझे भी दो और इस पुण्य क्षेत्र की आराधना करो।
टीका - दिव्यां भो कृषि कृषेत् नापयेत् । गतार्थः ।
कतो छेकतो वीयं कतो ते जुगणंगलं ।
गोणा वि तेण परसामि, अजो ! का नाम ते किसी ? ॥ १ ॥
अर्थ :- तुम्हारा क्षेत्र ( खेत ) कहां है, तुम्हारे नीज कहां हैं और तुम्हारे युगलांगल कहां है ? तुम्हारे पास गोकस भी दिखाई नहीं देते। फिर आर्य । तुम्हारी खेती क्या है ?
गुजराती भाषांतर :
તમારું ખેતર ક્યાં છે? તમારું બીજ ક્યાં છે? અને તમારો યુગલોંગલ ( લંગર ) ક્યાં છે કે તમારે પાસે તો ગાયનું વાછરડું પણુ ક્યાંય દેખાતું નથી. ત્યારે હું આયે ! તમારી ખેતી હૈવી છે?
पिंग
ने जब दिव्य खेती निमण किया तो कृषक ने प्रश्न किया तुम्हारी खेती क्या है, तुम बोलते हो मैं दिव्य खेती करता है, किन्तु खेती के अयोगी एक भी प्रसाधन तुम्हारे पास दिखाई नहीं देता, न खेत है न बैल, न युगलांगल और न बीज है, फिर तुम कौनसी खेती करते हो ?
टीका :- कुतः क्षेत्रं कुतो बीजं कुतस्तव युगांगले ? मा अपि तत्र न पश्यामि हे आर्य ! का नाम तत्र कृपिरिति प्रभाः । गतार्थः ।
आध्यात्मिक खेती के प्रसाधन बताते हुए अर्हता धोलते हैं -
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बीया उत्तरा० अ० १२० १२.
आता छेत्तं तत्रो बीयं संजमो जुगणंगलं ।
अहिंसा समिती जोजा एसा धम्मंतरा किसी ॥ २ ॥
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अर्थ :- आत्मा क्षेत्र है, तप बीज है, और संगम ही युगलांगल है | अहिंसा और समिति जोड़ने लायक (सुन्दर बैल) हैं, यह धर्मान्तर कृषि है ।
कासगा तब निन्ने आसयाए । यहि सुद्धा हि दलाहि मां आराह पुण्ग मिणं सुखिर्त्त