________________
बत्तीसवाँ अध्ययन
१९५
गुजराती भाषान्तर:
પોતાનો આત્મા જ યુગલાંગલ ( લંગર છે, હિંસા અને સમિતિ જોડવા લાયક ( પુષ્ટ એલ ) છે, અને આ धर्मांतर कृषि (खेती) छ.
आध्यात्मिक खेती के प्रसाधन भी आध्यात्मिक ही होंगे। भौतिक साधनों से आत्मा की खेती नहीं हो सकती । अत उसी आत्मिक खेती का निरूपण करते हुए कहते हैं आत्मा ही मेरा क्षेत्र है, तप बीज है, संयम ही युगलांगल रहता है | अहिंसा और मंच समिति खेती के लिये पुष्ट वृषभ हैं, यही मेरी आध्यात्मिक खेती ( की सामग्री ) है ।
साधना का मूल प्राण आत्मा है। आत्मा ही वह तत्व है जिसके आधार पर धर्म का भवन टिक सकता है, आत्मा को स्वीकार नहीं किया जाय फिर कैसा धर्म, किसकी शुद्धि के लिये साधना की जाय । आत्मा है तो प्रश्न होगा उसका रूप क्या है ? देव के गुणधर्म आत्मा के गुण के धमों से निश्चित ही भिन्न है। क्योंकि देव से आत्मा मिन्न' है । फिर वह शुद्ध बुद्ध आत्मा संसार के कीचड में क्यों फंसा है और वह पुनः शुद्ध स्थिति पा सकता है या नहीं ? यदि पा सकता हैं तो उसके उपाय क्या है ? इन सभी प्रश्नों के समाधान में अध्यात्म फिलासॉफी आई है और वह कहती है आत्मा का शुद्ध स्वरूप भिन्न है, किन्तु वासना के कारण वह संसार के कीचड में लिप्त हैं । वह शुद्ध स्थिति पा सकता है उसका साधन है तप, संयम, अहिंसा और पंत्र समितियों। यहां रूपक के द्वारा अतर्षि इसी तत्व का प्रतिपादन करना चाहते हैं ।
टीका :- आत्मा क्षेत्र तपो बीजं संयमो युगलांगले । अहिंसा समितिश्च योग्या, एषा धर्मान्तर धर्म- गर्भा कृषिः । गतार्थः ॥
एसा किसी सोभतरी अलुइस्स विवाहिता ।
एसा बहुसई होइ परलोकसुहावा ॥ ३ ॥
अर्थ :--- यह खेती शुभत्तर हैं, किन्तु निर्लोभ व्यक्ति ही इसे कर सकता है। यह खेती अतिसुन्दर है और परलोक में सुखप्रद है ।
गुजराती भाषान्तर :
આ ખેતી વધારે શુભ (શુદ્ધ) છે, પરંતુ ક્ષોભવગરનો માણસ જ આવી ખેતી કરી શકે છે, આ ખેતી આ લોકમાં ઘણી જ સુંદર છે, અને પરલોકમાં પણ સુખ આપનાર છે.
आत्मिक खेसी शुभ या शुद्ध है, किन्तु इसे करने के लिये तृष्णा विहीन मन चाहिये । क्योंकि लोमी बहरा है, आत्मा के स्वर नहीं सुन सकता है। एक विचारक ने कहा है - लोभी का मन रेगिस्तान की उस बंजर भूमि जैसा होता हैं जो तमाम बरसात और जोस को सोख लेती है किन्तु कोई फलम, जड़ी या बूढी नहीं उगाती । उसके मन के रेगिस्तान में शान्ति की लता ऊग नहीं सकती। आँस से कुआ नहीं भरता । ऐसे धन से लालची की आंख नहीं भरती । जब पैसे में सुख देखनेवाला चैतन्य की लक्ष्मी नहीं पा सकता ।
आध्यात्मिक खेती चैतन्य की लक्ष्मी है। उसे संतोषी मन ही पा सकता है। पार्थिव खेती शरीर की भूख मिटाती है जब कि आत्मिक खेती आत्मा की भूख मिटाती है। पहली खेती इस जीवन के लिये सुखप्रद है, तो दूसरी खेती परलोक में हितप्रद है ।
अहिंसा की खेती परलोक में अवश्य सुखप्रद होती है इसमें किसी के दो मत नहीं हो सकते । किन्तु इससे यह तात्पर्य निकालना गलत होगा कि अन्न की खेती परलोक में दुःखप्रद होगी । आगम साक्षी हैं, भगवान् महावीर के उपासक स्वयं खेती करते थे और उनका पारलौकिक जीवन भी उतना ही सुखप्रद था जितना कि इहलौकिक जीवन | खेती का निषेध करने का यह मतलब होगा कि मांसाहार को प्रोत्साहन देना जोकि निश्रयतः दुःखावह है ।
टीका :- एषा कृषिः अन्धस्य पुरुषस्य शुभतराऽतिशुभा व्याख्याता । एषा बहु-सती अतिसाध्वी परलोके सुखावहा च भवति ।
१ नलिन्यो व थथा नीरं मित्रं तिष्ठति सर्वदा । अयमात्मा स्वभावेन देहे तिष्ठति सर्वदा परमानंदपं वविंशति २ या भाषैणादान-निक्षेपोत्सर्गाः समितः । - तत्वार्थ सूत्र अ, ९ सू. ५. ३ शुद्धतारा.