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एकतीसवां अध्ययन
दृष्टि में चिरमण शब्द यहां अनुपयुक्त है। और उस शब्द की यहाँ उपस्थिति बताती है कि कुछ पाठ छुट गये हैं और वे बताते हैं उसकी पूर्ति दूसरी पुस्तक में की गई है। किन्तु उस पुस्तक के पाठ की टीका जो यहाँ दी गई है वह कुछ प्रम उत्पन्न करती है । क्योंकि वहां बताया गया है प्राणातिपात आदि के द्वारा मति करके जीव सातवेदनीय का अनुभव करता है और उगसे विरमण अर्थात चिरति के द्वारा असातवेदनीय का अनुभव करता है। यह तो सिद्धान्त के विपरीत जाता है । क्योंकि प्राणातिमान आदि के द्वारा आत्मा असातवेदनीय का अनुबन्ध करता है । और उससे विपरीत के द्वारा मातवेदनीय का अनुभव करता है। कार ने कापसा आराय मासे 46 समना नई जा सकता। हा; यह हो सकता है,
आत्मा जब प्राणातिपात आदि क्रिया करता है उस समय सुस्न का अनुभव करता है अथवा टीकाकार शातनवेदनीय का दृसरा अर्थ करते ही यह भी संभव है। आगे चलकर टीकाकार लिखते हैं शातना नाशन वेदना वैदयन्ति अर्थात शातमा नष्ट होनेवाली वेदना को अनुभव करते हैं। यहां शातन अशातन से सुख दुःखानुभूति न लेकर नश्वर और अनश्वर अनुभूति लिया जाय तत्र तो अर्थ ठीक हो सकता है।
प्रोफेसर शुबिंग लिखते हैं पार्थ के वचनों के सम्बन्ध में वहां केवल प्रश्न है । उनके उत्तर के एकीकरण में मुद्रालेख तैयार करते हैं। गति के सम्बन्ध में छठ्ठा प्रश्न जो कि सबसे भिन्न है उसे संक्षिप्त किया गया है । छठे प्रश्न के उत्तर के स्थान पर सातवें प्रश्न का उत्तर आ जाता है।
आगे की पंक्तियां कुछ स्पष्टीकरण देती हैं। दुनिया के पीछे की स्थिति पर अवलंबित (परिणाम ) १-५ तक के उत्तरों में आत्मा और अनात्मा का दहरे रूप में विश्लेषण किया गया है। धर्म उपदेश में प्रान्तीय भाषा के अनुसार पुनः पुनः निर्देश किया गया है । और वे अपनी प्रणालिका के अनुसार उसका पुनः पुनः समर्थन करते हैं और उस स्पष्टीकरण को जीवन की स्टेज के साथ जोड़ते हैं।
गति के मूल अर्थ में वाक्य का अक्षरशः अर्थ निजगुणों के द्वारा आत्मा को ऊर्ध्वगामी सिद्ध करता है। क्योंकि और उससे अवगति बताई जाती है । उसके सामने अजीबकाया के गुण आत्मा से भिन्न है। अतः उसे अधोगामिन कहा गया है । मानव देव आदि गति के भेद दीर्घ दृष्टि सूचित करते हैं। जोकि व्यक्ति पर होनेवाली कर्म की अच्छी या बुरी असर को लक्ष्य करके कहा गया है।
पृथ्वी पर का मानव कमी अबाधित सुख प्राप्त नहीं कर सकता । उसे खैर बिहार की छुट्टी दे दी गई है। "कसं क्राइत्ता” (आचारांग १५) उसे हानिकारक बताता है। कुछ रूप व्याकरण सम्मत नहीं होने पर भी इसमें रखे गये हैं। कहीं कहीं विरोधाभास गी है जैसे कि मनुष्य दुःख के सिवाय सब उत्पन्न कर सकता है। (प्रकार्षित )।
गति वागरणगंथाओ पभिति समाणितं इमं अज्झयर्ण ताव इमो बीओ पाठो दिस्सति, संजहा जीवागमणपरिणता, पोगाला चेव गणपरिपाता।
अर्थ:-पतिव्याकरण प्रेथ आदि से यह अध्ययन लिया गया है। वहां द्वितीय पाठ भी देखा जाता है। जैसे कि जीव गतिशील है और पुद्गल भी गतिशील । गुजराती भापान्तर:
ગતિનિરૂપક ગ્રંથ આદિથી આ અધ્યયન લઈ લીધું છે. ત્યાં બીજો પાક પણ લેવામાં આવે છે. જેમ કે જવ પણ ગતિશીલ છે અને પુદગલ પણ ગતિશીલ છે.
ऋषिभाषित सुत्रकार बोलते हैं कि प्रस्तुत अध्ययन गतिनिरूपक के ग्रन्थ से लिया गया है। वहां दूसरा पाठ भी दिखाई देता है। इससे यह फलिरा होता है कि पार्वीय अध्ययन पार्थ अतिर्षि का न होकर किसी दूसरे का है। किन्तु पार्श्व अहंतर्षि के मुंह से कहलाया गया है । इससे दूसरा तथ्य सामने आता है। ऋषिभाषित सूत्र ऋषियों के द्वारा कहलाया गया है, पर इसका संकलन कर्ता कोई दूसरा है। वह कौन है, कब हुए कहा हुए आदि सभी विषय इतिहास के गर्भ में है। उनका समाधान पाने के लिये बहुत बड़ी शोध की आवश्यकता है।
दुविधा मती पयोगगती य बीससागती य । जीवाणं चेव, पोग्गलाणं चेय । उदइय, पारिणामिर गतिमाथे। गम्ममाणा इति गति । उढंगामी जीवा अधगामी पोग्गला । पावकम्मकडेणं जीवाणं परिणामे, पावकम्मकडेणं युग्गलाण । णक्रयातिपया अदुक्खं पकासी ति । असकडा जीवा
१ इसिभासियाई जर्मन संस्करण पृ० ५६७-५२८.