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इसि-भासिथाई गुजराती भाषान्तर:
કયો પણ આમા કલ એટલે કષાય એટલે હિંસા કરીને રાખંડિત સુખ મેળવી નહીં શકે. વો એ તરહની. વેદનાને અનુભવે છે. (એક છે મુખરૂપી વેદના અને બીજી છે દુઃખરૂપી વેદના) પ્રાણાતિપાતાદિ વિરક્તિસુધી અઢાર મિથ્યાદર્શન સત્યથી વૈરાગ્ય પ્રાપ્ત કરી આત્મા સાતવેદનીય ? સાચા સુખને અનુભવો મેળવી શકે છે. પરંતુ પ્રાણાતિપાત ઈત્યાદિ જેનાથી આ આતમાં ગભરાયેલ છે ત્યાંજ જન્મ પામે છે, અર્થરૂપથી ત્યાં રહેશે. પણ જે આત્માએ પોતાનું કામ નકી કરી રાખ્યું છે એ અચિત્ત ભોગ ભોગવા નિર્ચથ પ્રપંચન અટકાવી શકે છે. સંસારનો છેદન કરી શારિક કેળના વિના કરી શકે છે તેમજ કારહિત અને સંસારના તાપરહિત બની લોકિક વૃત્તિ(એટલે આ સંસારરૂપી જંજાળ) માં ફરી આવશે નહીં.
अतिर्षि गति का निरूपण करते हुए सोपाधिक गति को कारण बता रहे है । मुक आत्मा की लोकान्त तक की ऊर्य गति ही निरुपाधिक है शेष सभी गदियां सोपाधिक है। उराका कारण है क्व-हिंसा ! जव तक कप की आय ६५ काय मौजूद है। तब तक आत्मा की सौपाधिक गति बन्द नहीं हो सकती। नारक और तिर्यन आदि में परिभ्रमण करते रहना होगा। यह परिभ्रमण स्वयंवेदना है। सांसारिस आत्मा की वेदनानुभूति दो रूप में होती है-कभी वह सुखरूप होती है कभी दुःखरूप । किन्नु जब आत्मा प्राणातिपातादि अठारह अशुभ तृतियों से विरत होता है तो सुखानुभूति करता है। उसके अभाव में उने अनिच्छित स्थानों में भी उत्पन होना पड़ता है और वेदना का अनुभव करना पड़ता है।
जिरा माधक ने अपना लक्ष्य पहचाना है और अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता के साथ कदम बढ़ा रहा है यह संसार और उसकी पेदना से मुक्त होनेज स्थिति में पहुंच सकता है। उसकी गति निरूपाधिक होती है।
टीका:--उत्तरगामिणामपि सूत्राणां स द्वितीय पाठ इति वक्ष्यते। ऊर्वगामिनो जीवाः अधोगामिनः पुनला। कर्म"प्रभवा जीवाः, परिणामप्रभवाः पुतलाः। कर्म प्राप्य फलनिपाको जीवानां परिणाम प्राप्य पुदलाना। द्वितीयपाठस्तु पापकर्मकृतो जीवानां परिणामः स एव पुतलानामिति।
नकवाचिदियं प्रजा मनुष्यादिकाव्यायाधसुखमनुपरुई सुखं एषेत । कशा कशयित्वा-हिंसा कृत्वा। द्वितीयपाठस्तु • यथा-न कदामित् प्रजा प्राकार्षीददुःखमिति । जीवा द्विविधां चेदनां वेदयन्ति अनुभवन्ति । तद्यथा-प्राणातिपातेन यावत् मिध्यादर्शनेन । विरमणपदं स्विहन युज्यते । अस्येश्यमानत्वादवृद्धलेखकदोषेण विस्मृतानि कानिधित् सूत्राणीत्यनुमीयते । पूरितं चिदं छिद्रम् । पुस्तकेन यथा पूर्व यावत् मिथ्यादर्शनशल्येन कृत्वा जीवाः शातनां वेदना वेदयन्ति । प्राणातिपा. तविरमगन तु यावन् मिथ्यादर्शन-शल्य-विरमणेन कृत्वा जीवा अशातनां येदनां चेदयन्ति । एतेनैव प्रकारेण द्विनीयपाठेन पूरित रि यथा-श्रात्मकृतो जीवा भवन्ति, कृत्वा कृत्वा यद् यद् कृतवन्तस्तद् तद् वेदयन्ति । तद् यथा-प्राणातिपाते यावत्परिग्रहेणेति।
अर्थात पूर्व सूत्रों की भांति आगे के सूत्रों में भी पाठान्तर है। जीत्र ऊर्ध्व गतिशील हैं, पुद्गल अधोगामी है । जीवों की गति कर्म-जन्य है, जबकि पुदलों की गति परिणामजन्य हैं। जीवों की गति कर्म फल के विपाक को लेकर होती है और पुद्गल की गति परिणाम विपाक को लेकर । दूरारे पाठ के अनुसार पापकर्भ-कृत जीवों के परिणाम से गति होती है और वही परिणाम पुद्गल की गति के लिये निमित्त होना है।
यह मनुष्याद्रि प्रजा हिंसा करके कभी बाधारहित सुख नहीं पा सकती । दृग़रे पाठ के अनुगार बह प्रजा कभी भी दुःखमुक्त नहीं होगी। आत्मा दो प्रकार की वेदना का अनुभव करते हैं। जैसे कि प्राणातिपात यावत् , मिध्यादर्शन शल्य से । "विरमण"पद यहां आया है वह अनुपयुक्त है। इनके यहां होने से ऐसा लगता है वृद्ध लेखक स्मृति दोष के कारण कुछ सूत्र भूल गये हैं। दूसरे नंबर की पुस्तक ने इस कमी को पूरी करने की कोशिश की है। जैसे कि इस प्रकार मिथ्यादर्शन शल्य के द्वारा क्रिया करके जीव सातवेदनीय का अनुभव करते है। प्राणातिपात विरक्ति यायत. मिथ्यादर्शन शल्य चिरति से किया करके जीव असात वेदनीय का अनुभव करते हैं (1) इसी प्रकार द्वितीय पाठ से भी छिद्र को पूरा गया है। जैसे कि आत्मा म्वकृत कमी को भोगते हैं। जो जो वे करते हैं उराको भोगते है-जैसे कि प्राणातिपात यावत् परिग्रह से ।
टिप्पणी:-प्रस्तुत अध्याय में अनेक पाठान्तर है। भूलसूत्र में दो पाठ मिलते हैं, जबकि टीकाकार अन्य पाठान्तर भी उपस्थित करते हैं। साथ ही प्रस्तुन सूत्र की एक कमी को और भी दे इंगित करते हैं कि जहां जीव को दो प्रकार की वेदना बताई गई है। उसके कारणरूप प्राणातिपान विरमग यावत् मिथ्यादर्शन झाल्य घिरमा दिया गया है। टीकाकार की