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________________ एकतीसवां अध्ययन भवति लोक इति योज्यं । स्वास्थमुद्दिश्य जीवानां लोको निवृत्ति लिष्पत्तिमुद्दिश्य जीवानां चाजीवानां च । को वा लोकभावः ? समाविकोऽनिधनः पानिमिझो लोकमान! ! रेन वाईन फोक इति प्रोज्यते ? लोक्तीति लोकः । गताः। (७) जीवाण पुरंगलाण य गतीति आहिता । (६) जीवाणं चेच पुग्गलाण चेव गती। दव्यतो गती, खेत्तओ गती, कालओ गती, भावओ गती(८)अणा दीए अणिहणे गति भावे (९)ग गति । उद्धगामी जीया अहगामी पोग्गला, कम्मप्पभवा जीवा, परिणाम प्पभवा पोग्गला । कम्मं पप्प फल यिवाको जीवाणं । परिणाम पप्पफल विचाको पुग्गलाणं ।। अर्थ:-जीव और पुद्गलों की गति बताई गई है। जीव और पुद्गलों की गति के चार प्रकार हैं-द्रव्य से गति, क्षेत्र से गति, काल से गति और भाव से गति । गति भाव अनादि और अनंत है। जाया जाता है उसका नाम गति है। जीव ऊर्ध्वगामी होते हैं और पुल अधोगाभी होते हैं। जीवों की गति कर्म-प्रभावित है और पुदलों की गति परिणाम प्रभावित है। जीवों की गति कर्म मल के विपाक से होती है जब पुद्गलों की गति परिणाम के फल विपाक से होती है। गुजराती भाषान्तर : - જીવ અને પુદગલોની ગતિ જણાવી દિધી છે. જીવોની અને પુદગલીની ગતિના ચાર ભેદ છે. દ્રવ્યથી ગતિ, ક્ષેત્રથી ગતિ, કાલથી ગતિ અને ભાવથી ગતિ. આ ગતિભાવ આદિ૨હિત તેમજ અંતરહિત છે. જે પસાર થઈ જાય છે તેનું નામ ગતિ છે. જીવ ઉર્ધ્વગામી (નિસર્ગતઃ ઉપર જવાને ટેવાયેલા છે, અને યુગલે અધોગામી (નીચે જવાને ટેવાયેલા છે. જીવનની ગતિ પોતપોતાના કર્મોના પ્રભાવથી પ્રાપ્ત થાય છે અને પુદ્ગલીની ગતિ પરિણામથી પ્રભાવિત થાય છે, જીવોની મતિ કર્મફલના પરિણામથી થાય છે જયારે પુગીની ગતિ પરિશ્રમના ફલવિપાકથી થાય છે. गतिसम्बन्ध में किये गये प्रश्नों का यहाँ समाधान दिया गया है। पाइन्व्यों में गतिधर्मी केवल दो ही द्रव्य हैं, जीव और पुनल । गति चार प्रकार से होती है-श्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । मतिभाव अनादि अपर्यवसित है। क्योंकि जीव और पुद्गल अनादि हैं और वे गतिशील है। जीव और पुतलों का आकाश प्रदेशों से दूसरे आकाश प्रदेशों में जाना ही गति है। जीव जगामी हैं । पुतुल अधोगामी हैं। 'अर्थगतिधर्माणो जीवाः, अधोगतिधर्माणो पुद्गलाच' । जीवों की ऊर्च अधः और तियेच गति कर्म-जन्य है। जन कि पुद्गलों की गति परिणाम-प्रभावित है। टीका:-का गतिः ? जीवानां च पुतलानां च गतिः। द्रव्यतः क्षेत्रतः कालसो भावतः। व्याकरणस्य तु पाठान्तर यथा जीवाश्चैव गमनपरिणता पुलाचैत्र गमनपरिणता इति । कस्य वा गतिः।। जीवानो च पुद्गलानां च गतिरित्याख्याता । अर्थ:-गति क्या है? जीच और पदलों की गति है। वह द्रव्यक्षेत्र काल और भाव रूप से चार प्रकार की है। इस गति व्याकरण अर्थात् गति का से सम्बन्धित विवेचन का दूसरा पाठ मिलता है उसके अनुसार पुद्गल और जीव ही गति परिणत हैं। किराकी गति है इसके उत्तर में कहा गया है जीव और पुद्गलों की गति होती है। व मा पया क्यार अवाबासहरीसिया कसं कसाविता । जीवा दविहं वेदपां वेदेति पाणातियातविरमणेणे जाव मिच्छादसणविरमणेणं किन्तु जीवा सातणं वेदणं वेदेति । अस्सहाय विहेति, समुच्छिजिस्सति अट्ठा समुच्छिडिस्सति णिद्वितकरणिजे संसे संसारमग्गा भडाई नियंठे विरुद्ध पवंचे वोच्छिषणसंसारे, पोषिपणसंसारदणिजे पहीणसंसारे, पहीणसंसारवेयणिजे णो पुणरवि इच्छत्थं हवभागच्छति । अर्य:..-कोई भी आत्मा कष अर्थात् कषाय अथवा हिंसा को करके अध्यावाध सुख प्राप्त नहीं कर सकता। जीव दो प्रकार की वेदना, अनुभव करते हैं। (एक सुख रूप वेदना दूसरी दुःखरूप वेदना) किन्तु प्राणातिपात से विरक्ति यावत् मिथ्यादर्शन सत्य से विरक्ति पाकर आत्मा सातवेदनीय का अनुभव करता है। किन्तु प्राणातिपात आदि के द्वारा यह आत्मा जिससे भयभीत होता है वही उत्पन्न होता है । अर्थ रूप से वहां ठहरेगा। किन्तु जिसने अपने कार्य निश्चित कर लिये हैं ऐसा अचिशमोगी निन्ध प्रपंच को रोक देता है 1 संसार का छेदन करके संसार की वेदना को विनष्ट करके संसार. रहित और संसार की वेदना रहित हो वह लौकिक वृत्ति में ( संसार में) पुनः नहीं आता है। - - - १ अहगामी, २ ममतिथिग्जिस्लति, समविच्छिशम्सति । सम्मत्तिच्छिवास्सति । ३ संति संसारभगा । ४ अमाइ । ५ इत्य।
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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