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________________ इसि - भासियाई पासेण अरहता इसिणा बुद्दतं । ( १ ) जीवा चेच अ जीवा चेव ( २ ) चडविहे लोग विवाहिते, दव्यतो लोए, खेतओ लोर, कालओ लोप, भावओ लोप | ( अत्तभावे लोप) (३) सामित्तं पहुच जीवणं लोप । पिवति पहुच जीवाणं चेव अजीवाणं चेव ( ४ ) अणादीप अणिहणे परिणासिए लोयभावे ( ५ ) लोकतीति लोको । ! अर्थ :- अतर्षि बोले- लोक जीव और अजीव रूप है। यह चार प्रकार का बताया गया है । द्रव्य लोक (२) क्षेत्रलोक ( ३ ) काललोक और ( ४ ) भावलोक । लोक अपने आत्मभाव में है। खामित्व की अपेक्षा यह जीवों का लोक है और निति अर्थात् रचना की अपेक्षा यह लोक जीवों का भी है और अजीवों का भी यह लोक अनादि अनंत हैं और पारिणामिक भाव में स्थित है। दूसरी अपेक्षा से यह लोक अपने स्वभाव में स्थित है। जो आलोकित होता है उसे लोक कहते हैं । १८६ ટ્ गुजराती भाषान्तरः --- પાર્શ્વ અદ્વૈતષિ ગૌણ્યા-લોક જીવ અને અજીવરૂપ છે. તેના ચાર પ્રકાર છે. ( ૧ ) દ્રવ્યલોક ( ૨ ) ક્ષેત્રલોક ( 3 ) असतो ( ४ ) आवबोड खोड तो पीतानांमांग होय छे. भाडीनी दृष्टि था सो वोनो छे. अने निवृत्ति એટલે રચનાની દ્રષ્ટિએ આ જીવોનો લોક છે, અને નિવૃત્તિ એટલે રની દૃષ્ટિએ તો આ જીવોનો લોક છે અને જીવતરનો પણ છે. આ લૉક આદિરહિત અને અંતરહિત છે. તેમજ પરિણામસ્વરૂપમાં અધિષ્ઠિત છે. આજી વસ્તુની અપેક્ષાથી વિચાર કરીએ તો આ લોક પોતાનાંમાંજ અધિષ્ઠિત છે. જે આલોક્તિ ( દષ્ટિથી જોવાય ) છે તે લોક उपाय छे. मानव मन में घुमड़ती जिज्ञासा का समाधान करते हुए पार्श्व अर्हता ने लोक से सम्बन्धित प्रश्नों का समाधान दिया है । नद और चैतन्य की यह विराट् सृष्टि ही लोक है। ऐसे तो लोक पंचान्तिकायात्मक है। धर्म, अधर्म, आकाश, जीव और पुलों की अर्थ-सृष्टिलोक है । दूसरा प्रश्न लोक के प्रकार के सम्बन्ध में है। लोक के चार प्रकार हैं। हव्य क्षेत्र काल और भाव । भगवती सूत्र में इस प्रश्न पर काफी विस्तृत रूप में चर्चा की गई है। लोक चार प्रकार का है -द्रव्यलोक, क्षेत्रलोक काललोक और भावलोक द्रव्यलोक एक और सान्त है। क्षेत्रलोक की लम्बाई और चौड़ाई असंख्य कोटाकोटी योजनों की है। इसकी परिधि भी असंख्य कोटाकोटी योजनों की है फिर भी यह शान्त हैं, अनंत नहीं । काल लोक अनादि अनंत है । काल की अपेक्ष से यह लोक कभी नहीं था, कभी नहीं रहेगा ऐसी बात नहीं है, लोक था ही और रहेगा 1 काल- कृत लोक व नियतशाश्वत अक्षत अक्षय अव्यय और नित्य है । यह भाव लोक अनंत वर्णे पर्याय, अनंत गंध रस और स्पर्श पर्याय रूप हूँ । अनंत संस्थान पर्याय, अनंत गुरु लघु पर्याय और अनंत अगुरु लघु पर्याय रूप है । इस प्रकार द्रव्य लोक और क्षेत्रलोक सान्त है काललोक और भावलोक अनंत हैं । तीसरा प्रश्न लोक के स्वामित्व से सम्बन्धित है। उसके उत्तर तीन रूप में दिये गये हैं। पहला उत्तर है लोक आम भाव में स्थित हैं, उसका कोई स्वाभी नहीं है; क्योंकि चतुर्दश रज्जनात्मक इस विराट्र लोक का कोई एक अलग खामी नहीं हो कता । अपने तत्व का नियंता स्वयं है। दूसरा उत्तर हैं लोक का स्वामी आत्मा है, क्योंकि वहीं एक तत्व ऐसा है जो चेतना सम्पन्न है और वही स्वामित्व प्राप्त कर सकता । अतः स्वामित्व की अपेक्षा से जीवों का यह लोक है । निरृत्ति अर्थात रचना की अपेक्षा से यह लोक जद और चैतन्य दोनों का है, क्योंकि दोनों के द्वारा ही यह लोक व्यवस्था है । स्थिति की अपेक्षा लोक अनादि अनंत है और भाव की अपेक्षा यह लोक पारिणामिक भाव में स्थित है। वस्तु का अनोपाधिक शुद्धभाव परिणामिक हैं । द्रव्य मात्र निज भाव में लीन है । अन्तिम पद में अर्हतर्षि लोक शब्द की व्याख्या देते हैं । लुक्यतेति लोकः अर्थात् जो आलोकित होता है देखा जाता है वहीं लोक है। टीका: पार्थीयाध्ययनस्य पृच्छा इह योग्यन्ते व्याकरणैः । कोऽयं लोकः ? जीवाचैवा जीवाश्चैवेति लोकः । कतिविधो लोकः ? चतुर्विधो लोकः ? व्याख्यातस्तयथा जन्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतः । कस्य वा लोकः ? आत्मभावात्मना १. स्कंदन पक्ष "भगवतीसूत्र प्रथम शतक उद्देशक १०१ । +
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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