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गा.
__ अ. गा. पृष्ठ ९-नवम अध्ययनः कर्म प्रयाद
| १६-घोडश अध्ययनः इन्द्रिय-विजय ९० अन्म और कर्म एक
इन्द्रियों का संयम संसार का कारण है दूसरे पर आधारित
और उनका निगड है, जन्म परम्परा
मोक्ष का कारण है। रोकने से कर्म-परम्परा
१५-सप्तदश अध्ययनः “सा विद्या या विमुक्तये" ९३ रुक जाती है।
१, १५, ३७ महाविद्या की प्राप्ति और कार्य । १७ १८, ९४ पांच माधब का बिधरण। ९, ५-७, ४२.४३
९८-अष्टादश अध्ययनः पाप-बन्धन निर्जरा तय की व्याख्या । ९, ९.१०, ४४-४९
पाप का आसेवन कर्ता ही दुरकर तप की भाषश्यकता । ९, १४,
संसार में भटकसा है। लब्धियों के दुरुपयोग को रोक; सदुपयोग की
१९-उन्नीसवाँ अध्ययन आर्य-कर्म भावश्यकता।
५२'
मनायों को छोड़कर सम्यक्त्वयुक्त भारमा का ध्यान
आर्यक्रम करने के लिये
। आरियायण महर्षि का उपदेश । १९ १५, द्वारा शुध्द होना । ९, २५, ५२ । सर्वज्ञ निरूपित
२०-बीसवाँ अध्ययनः पंच उत्कल-खोर १०५ धर्म का अनुभव करने
पंच उत्कलोका लक्षण व भेद। २० १५, वाले आरमा की धन्यता। ९, ३३, ५६ / २१-इक्कीसवौं अध्ययनः अशान विनाश
जहां अज्ञान है यहाँ अन्धकार है। १०-दशम अध्ययनः नारी द्वारा उद्बोधन ५६ / तेसलिपुत्र की जीवन कहानी। 10,
अन्धकार स्वयं एक विपसि है। २१ , 1,
ज्ञान द्वारा सब कुछ साध्य है। २१ १०, ११-एकादश अध्ययन अध्यात्म-मार्ग
२२-वाइसौं अध्ययनः नारी और प्रतिष्ठा अध्यात्म-मार्ग का
सुसंस्कृत नारी से प्रतिष्या की प्राप्ति चिकित्सक ही वासनादि-व्याधियों
और असंस्कृत नारी द्वारा कुलनाश । २२६८, का नाश कर सकता है। ११, १-६, ६५-६६.
साधना में ध्यान का स्थान। २२ १०-१४, १२-द्वादश अध्ययनः भिक्षाचरी गोधरी के लिए गए मुनि का
२३-सेवीसवाँ अध्ययनः मृत्यु-वर्शन १०७ वर्तन कैसा होना आवश्यक है। १२, १३, ६७.६९
मृत्यु के दो प्रकार। १३-त्रयोदश अध्ययन:सवादय देशना
२४-चौबीसवाँ अध्ययनः अनासक्ति योग १२३ भयाली अतिर्षि की हजारों वर्षों के ।
संसार में आसक्ति ही पूर्व की सर्वोदय धाणी। १३, , .
दुःखदात्री है और अना१४-चतुर्दश अध्ययन विधार-शुदि ७०
सप्रित हि शाश्वत स्थान
देने वाली है। अशुध्द घिचार-प्रेरित
२५१-४,
मोह क्षय से कर्म-सन्तति का क्षय । २५ २६-३७, . शुद्ध क्रिया भी मशुद होती है।
२५-पच्चीसवाँ अध्ययनः घासना-क्षय १५-पंचदश अध्ययनः भौतिक सुख
वासना के क्षय से ही भौतिक सुख दुःखानुबंधी है। १५, १, |
साधक मुक होता है।
२५१-१५, दुःख, खुढापा, शोक, मानापमान
| २६-छबीसवाँ अध्ययनः धर्म-दर्शन १४५ भादि जन्मपरम्परा के साथ ही समास
धर्म का मर्म, जो जिसकी वृत्ति है। होते हैं, अतः उन का समूल नाश
उसीमें उसको सफलता प्राप्त होती है। २६ १-५, हीभावश्यक है। १५, १२-२७,
घामण के लक्षण और कर्तव्य। २६ ६-१५,
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