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गा.
अ.
२७- सत्ताइसवाँ अध्ययनः चरित्र संपत्ति साधु की संपति उसका चरित्र है.
निःसङ्गना ही उसकी मुक्ति का द्वार है । २७ साधुजीवन की मर्यादा । २८ अट्ठाइसवाँ अध्ययनः वासना - विजय साधु को वासना को रोक
कर निःस्पृद्द होना चाहिए । उच्च-नीच भाव भावनाओं पर आधारित है।
२९ उन्तीसवाँ अध्ययनः स्रोत-निरोध स्रोतों का निरोध शक्य है । ३०- तीसवाँ अध्ययनः कर्म फल भोग इस लोक में किए कर्मों का परलोक में उपभोग । ३१-यकतीसवाँ अध्ययनः लोक-स्वरूप लोक के प्रकार, लोक का अर्थ, और उसकी गति । ३२- वंशीसवाँ अध्ययनः दया- निर्झर प्राणिमात्र पर दया करके ही
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ब्राह्मण भादि चार वर्ण सिध्दपत्र मास कर सकते " ३३ तैंतीसवाँ अध्ययनः प्रज्ञा और प्रतिभा पंडित की पहिचान और उनके कर्तव्य । ३३ १-१७ ३४ - चौतीसवाँ अध्ययनः परीषह-अय पति को परीषद और उपसर्गों को
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सहन करना चाहिए । ३५ पैंतीसवाँ अध्ययनः आस्तिकता निरूपण अज्ञानमुग्ध आत्मा की
वर्तमान तक सीमित होती है।
संयम को चुराने वाले पंचेन्द्रियादि
छोरों से सावधान रहनेका उपदेश । ३५ १८-२३ ३६- छत्तीसवाँ अध्ययनः कषाय विजय
क्रोध की परिणति ।
पृष्ट
ST. गा.
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१६० ३७ सैंतीस अध्ययनः विश्व-व्यवस्था विश्व स्थिति का वर्णन । ३८-अडतीसवाँ अध्ययनः आत्यंतिक सुख मासिक सुख और दुःख का विवेचन । ३८ १-१० दान्त आत्मा के लिये आश्रम और अरण्य समान हैं।
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दाम्भिक आचरण गर्छ है। ३९ उनचालीसवाँ अध्ययनः निष्पाप निष्पाप व्यक्ति को
देवता भी प्रणाम करते हैं।
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साधक को प्रयत्नशील होना अवश्य है । ४३- तैंतालीसवाँ अध्ययनः साम्ययोग लाभ -लाभ में सम-स्थिति रखने वाला ही महामानवता को प्राप्त करता है । ४३ ४४- चवालीसवाँ अध्ययनः राग-मुक्ति साधक को राम-द्वेष से मुक्त । होना आवश्यक है। ४५-पैंतालीसवाँ अध्ययनः अलिप्तता पापी जीवन गई है, अत एव
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४० - चालीसवाँ अध्ययनः - इच्छा-परित्याग साधक को निरिच्छ मनने का उपदेश । ४० ४१ - एकचालीसचाँ अध्ययनः तपसमाधि तप का उद्देश्य, उसकी साधना
करने वाला तपोवन को जाता है। ४० १०-१७ | ४२ बयालीसवाँ अध्ययनः -- पुरुष का उद्बोधक
पुरुषार्थ
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उससे साधक को अलिप्त रहना चाहिए। ४५ साधक को सर्वश का शासन
प्राप्त कर आत्म-ज्ञान को विकसित करना चाहिए । परिशिष्ट नं. १
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इति विषयानुक्रमसूचि संपूर्ण
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