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इसि-भासियाई
प्रथम अध्याय
प्रवेश आरती सरिता का जल तटवर्ती वृक्षों की जड़ों को तरी देता है ऐसे ही शान-श्रवण हमारे सद्रणों को तरी देता है। सत्य श्रवण विकास की प्रथम सीढ़ी है। जीवन का श्रेय क्या है और प्रेय क्या है, यह हम सुनकर ही जान सकते हैं। प्रत्येक बुद्ध जैसे विशिष्ट आत्माओं को छोड़ दें पर सर्व साधारण के लिये यही नियम होगा । सुनना कुछ है पर सब कुछ नहीं। यह पहिली सीढी अवश्य है पर उसके आगे की सीढियों को पार किये बिना मंजिल पा नहीं सकते। श्रवण के बाद उसका आ होना आवश्यक है। शवण बीज है तो सलाचरण पळवित वृक्ष है। बीज को खाद और पानी मिले फिर भी वह विकसित न हो उसपर एक भी फल न आये तो श्रम और समय का अपव्यय ही माना जायगा।
श्रोतम्य नामक प्रथम अध्याय में श्रवण को आवश्यक बताया गया है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय और अब्रह्म परिग्रह विरति रूप व्रताचरण उसके मधुर फल बताये गये हैं। यहाँ चतुर्थ और पंचम महानत को इसलिये साथ लिया गया है कि बुलके प्रणेता अहंतर्षि नारद है और वे प्रभु नेमिनाथ के युग के हैं। आदे अन्तिम तीर्थंकरों के अतिरिक्त शेष २२ तीर्थकरों के शासन में चतुर्याम धर्म की देशना है। देवनारद अर्हतोपदिष्ट श्रोतव्य अध्याय की प्रथम दो गाथाएँ
सोयव्वमेव वदति सोयश्वमेय पवदति । जेण समयं जीवे सबदुश्खाण मुञ्चति ॥१॥ तम्हा सोयब्वातो परं णस्थि सोय ति ।
देवनारवेषा अरहता इसिणा धुइयं ॥ २ ॥ मलार्थ:-श्रवण करना चाहिये। अक्षण करना ही चाहिये। ऐसा (जिनेश्वर ) देव कहते हैं। जिसके द्वारा आत्मा स्वमत का ज्ञाता बन कर सभी दुःखों से मुक्त होता है। अतः श्रवण करने से बढ़कर दूसरा कोई शौच (पवित्र) नहीं है । इस प्रकार देव नारद अर्हतर्षि कहते हैं। गुजराती भाषान्तर:( શ્રવણ કરવું જોઈએ, કારણ કરવું જ જોઈએ. આવું જીનેશ્વર દેવો કહે છે જેના વડે આત્મા સ્વમતને જ્ઞાતા થઈને બધા દુઃખોનું અન્ત લાવે છે. માટે શ્રવણ કરવા (સાંભળવા) થી મોટી બીજી કોઈ પવિત્રતા નથી, આવી રીતે દેવ નારદ અહર્ષિ કહે છે.
जीवन के लिये श्रेय क्या है और प्रेय क्या है यह हम सत्य श्रवण के द्वारा ही जान सकते हैं। सुनने के बाद ही स्वपर का भेद विज्ञान पा सकते हैं। भगवान महावीर की निर्वाण भूमिका श्रवण को बताते हैं:
श्रवण से ज्ञान विज्ञान प्रत्याख्यान संयम तप व्यवदान अक्रियावस्था और पश्चात् निर्वाण । ये हैं निर्वाण की ऋमिक सीढ़ियों । आत्मा श्रवण के द्वारा ही श्रेय और प्रेय को पहचानता है। फिर उसमें किसी एक पथ को अपनाने के लिये स्वतंत्र है।
प्रवण के द्वारा आत्मा सिद्धांतों का ज्ञान प्राप्त करता है और पश्चात् दुःस से मुचि पाता है, अतः श्रवण से बनकर दूसरी कोई पवित्रता नहीं है।
टीकाकार बोलते हैं:-"सोयवति श्रोतन्य शिक्षितन्यं पुत्र वदति श्रोतव्यं एष प्रबदति येम समय यत् भादाय मुथ्यते लोक सर्वदुःखेभ्यः। तस्माच्छ्रोतव्यात् परं न किंचितास्ति श्रोतम्य। सोयति शोचमिति पुस्तकानां पाठ: पेदलेखकाना भ्रम इति न भाद्रियते।"
१ भगवतीसूच शतक २।३।५.
२ दशकालिक अ. ४ | ११,