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इसि-भासिया अर्थात सुनना चाहिये, क्यों कि श्रवण से खमत को ग्रहण करके लोक (आत्मा) समस्त दुःखों से मुक्त होता है। अतः सत्य प्रण से बढ़कर दूसरा कोई श्रोतव्य नहीं है। अन्य प्रतियों में जो "सोय" पाठ मिलता है जिसका अर्थ होता है शौचम् ( पवित्रता)। यह पाठ वृद्धलेखकों के भ्रम के कारण आगया है, अतः वह हमें मान्य नहीं है।
दीकाकार को सोय पाठमान्य नहीं है। क्यों कि श्रोतव्य अध्ययन है। अतः सत्य श्रवण से बडकर कोई श्रोतव्य नहीं मानते हैं। जर्मन के प्रोफेसर शुनिंग प्रथम अध्याय पर टिप्पणी देते हुए लिखते हैं:
"थोड़ा बहुत जो सीखने लायक है उस और आग्रहपूर्वक ध्वान खींचने के लिए इस प्रकरण को पहले रखा गया है। 'सोय' और सोयं में ध्वनि साम्य है पर यह साम्यता विशेष महत्त्व नहीं रखती है। क्योंकि यहां थोतव्य को प्रमुखता दी गई है। अतः यह पार इस प्रकार होना चाहिये "तम्हा सोयत्तो परं नस्थि सोयच । वर्तमान पाठ में परंपरागत भूल दिखाई पड़ती है।"
पर देवर्षि नारद की प्राचीन कहानी "सोय" पाठ की पुष्टि करती है, वह इस प्रकार है:-एक बार प्रभु महावीर विचरण करते हुए सोरिय पुर पधारे । उनके दो शिष्य धर्म धोष और धर्म यश अशोक वृक्ष के नीचे ठहरे थे ।
पर वहां के एक आर्य देखते हैं। सूर्य पूर्व से पश्चिम की और ला, किन्तु छाया न बदली; तब वे एक दूसरे से कहने-लगे यह तुम्हारी लब्धि है। बाद में एक शौच के लिये जाता है। तब भी छाया न बदली। दूसरा गया तब भी न मदली, तो देखा यह तो किसी सीसरे की लब्धि है। दोनों प्रभु निकट आते हैं और इसका रहस्य पूछते हैं। प्रभु बोलेइसी शौर्यपुर में एक बार समुद्रविजय राजा थे। उनके शासन में एक यज्ञदत्त तापस रहता था। सोमयशा उसकी पत्नी थी । उनका पुन या नारद । वे उंछदैनिसे निर्वाह करते थे। एक दिन खाते और एक दिन उपवास करते थे। एकबार पूर्वाह में अशोक वृक्ष के नीचे शिशु नारद को सुलाकर खेत में कन चुन रहे थे। इधर वैश्रमणकायिक तिर्यक् जंभृक देव वैतादय से निकल कर उसके पास से गुजरते हैं । तमी वृक्ष के नीचे सोये मालक को देखते है । अवधिज्ञान से जाना यह तो हमारे देवनिकाय से च्यवित हुआ है। पूर्व स्नेह के कारण एवं बालक की अनुकया के कारण वे देवगण छाया को स्थिर कर देते हैं। जब बालक बड़ा होता है, देवगण उसे विद्या पढ़ाते हैं। पश्चात् नारद कांचन कुंडिका और मणि पादुका के साथ आकाश में घूमने लगे। एक बार वे द्वारिका में गये। वहाँ शसुदेव श्रीकृष्ण ने पूछा शौच क्या है ! पर नारद उत्तर न दे सके। अतः इधर उधर की बातें करके उठ गये और पूर्व विदेह में पहुंचे। वहां सिर्मधर तीर्थक्रर को युगबाहू वासुदेव पूछता है प्रभो शौच क्या है ? तीर्थकरदेव बोले सत्य ही शौच है। युग याहु एकही वचन में सब कुछ समझ गये। नारद भी वह सुनकर अपरविदेह में गये। वहाँ युगंधर तीर्थकर को महाबाहु वासुदेव वही प्रश्न कर रहे थे। प्रभु ने भी वहीं उत्तर दिया। महाबाहु मी सब कुछ समझ गये। नारद यह सब कुछ सुनकर द्वारिका में गये और वासुदेव से मोले-तुमने उस दिन कौनसा प्रश्न किया था ! वासुदेव बोले शौच क्या है ? नारद बोले - सत्य ही शौच है। वासुदेव बोलेसत्य क्या है भारद इस प्रश्न का उत्तर न दे सके, अतः कुछ चिन्तित हो गये । तब कृष्ण वासुदेव बोले- जहाँ पहला प्रश्न पूछा था उसके साथ यह भी पूछना था। तब नारद बोले-हो वीर, सचमुच मैने नहीं पूछा । पश्चात् अपि चिन्तन में प्रवृत्त होते हैं और जाति भरण पाकर संबुद्ध होते हैं । पश्चात् श्रोतव्य नामक प्रथम अध्याय का प्रवचन देते हैं।
इस प्रकार अध्ययन की भूमिका में शौच को स्थान है और उसके आरेभ में प्रोतव्य की 1 श्रषण के बाद आचरण आवश्यक है। अतः अईतर्षि आचार के प्रथम अंग अहिंसावत का निरूपण करते है।
पाणातिपातं तिविहं तिविदेणं व कुज्जा ण कारये।
पढमं सोयव्य लपवणं ॥३॥ अर्थी-त्रिकरण और भियोग से हिंसा न स्वतः करना और न अन्य से करवाना यह प्रथम श्रोतव्य लक्षण है। गुजराती भाषांतर:
ત્રણ કરણ અને ત્રણ યોગ દ્વારા પોતે હિંસા ન કરવી અને બીજા પાસે પણ ન કરાવવી આ સાંભળવાનું પહેલું લક્ષણ છે.
१ इसिभासिय 2. ५५२ (जर्मन)
२ खेत में पड़े कनों को चुन जुन कर खाने को उछवृत्ति करते है।