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प्रथम अध्याय
विशेष:-जिस श्रवण से मनुष्य के अन्तर्मन में दया का झरना न बह उठे अंतर की घनीभूत करुणा का स्रोत फूट न पड़े ऐसा श्रवण करना जीवन में सही उत्क्रांति नहीं ला सकता । श्रवण का पाचन मनन है और मनन का मक्खन अहिंसा है।
प्राणातिपात का निषेध कर यहाँ अहिंसा का निधारमय लिया है । क्यायि: Rो इटही घर की ओर पहला कदम है। मूर्तिकार मूर्ति निर्माण के लिये छीनी और इौड़ी के द्वारा अनिष्ट अंश को दूर करता है वह अनिष्ट अंश दूर होते ही भव्य मूर्ति आंखों के सामने होगी। अतः विभाव दशा को दूर करना साधक का पहला कदम है। हिंसा समस्त विभावावस्थाओं में निकृएतम है। इसी लिये उसका विकरण' और त्रियोग से प्रत्यास्थान किया जाता है।
टीकाकार भी वोलते हैं:--प्राणातिपातं त्रिविधं त्रिविधन कायवाचनोभिरेव चरणकरणत्रिकाभ्यां इति चेनैव कुर्यान कारयेदिति करणत्रिकस्य प्रथमा द्वितीयोग्योरक्तत्वात् ।"
अर्थात् त्रिविध का अर्थ मन वचन काया से लिया गया है पर करण से मतलब वरण करण नहीं लिया गया है । यहा न करना न करवाना और न करते हुवे को अनुमोदन देना ही प्राह्य है।
मूसावादं तिविहं तिविहेण व बूया ण भासए ।
पितियं सोयव्यलक्खणं ॥ ४ ॥ अर्थः-त्रिकरण त्रियोग से (साधक ) मिथ्याभाषा न खयं बोले, न अन्य से बुलवाये अथवा न मिथ्या उपदेश ही दे। यह दूसरा श्रोतव्य लक्षण है। गुजराती भाषान्तर:--
ત્રણ કરણ અને ત્રણ યોગો દ્વારા મુનિ મિથ્યા ભાષા પોતે ન બોલે અને બીજા પાસેથી પણ ન લાવે અને નમિ ઉપદેશ આપે એ સાંભળવાનું બીજું લક્ષણ છે.
. मागम श्रवण के लिये सत्यभाषी होना भी आवश्यक है। मिध्याभाषी व्यक्ति संतों की आत्मा को परख नहीं सकता न उनके बोल की कीमत ही कर सकता है।
अदत्तादाण तिविहं तिविहेण णेष कुज्जा पा कारवे ।
ततिय सोयवलक्षणं ॥५॥ अर्थः-साधक त्रिकरण त्रियोग से अदत्तादान का प्रहण न खयं करे, न अन्य से करावे। यह तीसरा श्रोतव्य लक्षण है। गुजराती भाषान्तरः
સાધુ પણ ત્રણ કરણ અને ત્રણ યોગ દ્વારા અદત્તાદાન પિત પણ ગ્રહણ ન કરે તેવા બીજા પાસે રહણ ન કરાવે. આ ત્રીજું શ્રોતવ્ય લક્ષણ છે. सत्य के शोधक को होय वृत्ति से दूर रहना होगा। क्यों कि चोरी की वृत्ति व्यक्ति को विनाश के पथ पर ले जाती है ।
अयंभपरिग्गह सिविहं तिविहेणं णेय कुजाण कारवे ।
चउत्थं सोयन्यलक्खणं ॥६॥ अर्थः-अब्रह्म ( काम ) और परिग्रह से साधक त्रिकरण त्रियोग से दूर रहे और अन्य व्यक्ति को उसके लिये प्रेरणा भी न दे। यह चौथा श्रोतव्य लक्षण है। गुजराती भाषान्तर:
અબ્રહ્મ એટલે વાસના અને પરિગ્રહથી સાધુ ત્રણ કરણ અને વિયોગથી અલગ રહે અને બીજાને પણ એના પ્રેરણા ન દે આ ચોથું શ્રોતવ્ય લક્ષણ છે. ___ ममत्व और वासना ये दोनोंही भादवन्धर्म है मुक्ति की ओर कदम बढ़ाने वाले साधक को वाहिये इन सूक्ष्म बंधनों से मुक्त हो।
१ एवं खु गाणिणोसार जण हिंसर किंचा।" भगवान महावीर २ करना, करवाना और अनुमोदन करना ये त्रिकरण कहलाते है। ३ मन, वचन और काया ये त्रियोग है।