SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 246
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१२ इसि-भासियाई जो बदला लेने की सोचा है वह अपने ही घाव को हरा रखता है जोकि अब तक कमी का अच्छा हो गया होता । एक दुसरा विचारत भी बोलता है: In taking revenge a mun is but cqual to bis enemy; but in passing it over bu is superior. बदला लेने से मनुष्य शत्रु के समान हो जाता है, किन्तु बदला न लेने से उससे महान अनता है। अतः अईतर्षि साधक को अप्रतिज्ञ भाव से रहने की प्रेरणा दे रहे हैं। टीका:-अप्रतिजभाषादुत्तरं न विद्यते स्वयं पंडितो वेशान् अनेकरूपान् भविष्यद् भावान् न प्रकरोति। यदि का वैसेत्ति दोषे दो ति स्थाने लेखकभ्रमात् । मप्रतिज्ञ इहलोके भवति यथार्थों प्राह्मणः । गसाथैः । कि कज्जते उदीणस्स णण्णत्थ देहकखणं । कालस्स कखणं वा वि णण्णत्थं वा वि हायती ॥३॥ अर्थ:-दीन व्यक्ति देह कक्षा के अतिरिक्त क्या करता है? अथवा कमी मृत्यु की आकांक्षा करता है किन्तु उसके अतिरिक्त दूसरे तत्व को नष्ट करता है। गुजराती भाषान्तर: સામાન્ય માણસ પોતાના શરીરને ટકાવવા માટે જરૂરી ચીજોની અપેક્ષાથી વધારે શું કરી શકે છે? તે કદાચ જીંદગીના અંતનો ખ્યાલ પણ કરે, પરંતુ ખરી રીતે તે તેના સિવાય બીજા તવોનો નાશ કરે છે. सामान्य मानव जब तक आराम में होता है तब तक वह जीवन चाहता है और जब संकट के क्षणों से गुजरता है तब वह मौत मांगता है। वह दीनता लेकर चलता है। जीवन की कला ले वह अनभिज्ञ है तो मौत की मधुरिमा से भी वह अपरिचित है। मुसीबत से घबराकर मौत मांगना जीवन की बहुत बड़ी पराजय है। यह ठीक है मृत्यु से जब तक बन सके बचे रहना जीवन का पुरुषार्थ है। किन्तु साथ ही यह भी न भूलना होगा कि मृत्यु का यथार्थ वरण ही जीवन का चरम विकास है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो मनुष्य जीने का भरसक प्रयत्न करे, किन्तु जहां उसे मनुष्य की तरह जीने का अवसर मिले तो वह न चूके। मृत्यु मनुष्य की विवशता नहीं एक कला मी है। मुत्यु की गोद में सोकर सुकरात साधारण प्रचारक से बढकर अमर विचारक हो गया। माराम में जीवन की चाह और संकट में मौत की चाद मह दीनता की भाषा है। विचारक न सुख में जीना चाहता है न दुःख में मौत मांगता है वह अपने लक्ष्य के लिये जीता है। यदि उसे मौत में लक्ष्य की सिद्धि दिखाई देती है तो वह मृत्यु को भी इंसते हुए वरण करेगा। टीका-सामान्येन पुरुषेण किं क्रियते देहकांक्षणात् सि अन्यत्र न किंचिदित्यर्थः, दीनस्य कालकांक्षण प्रायोपगमनादिना मृत्युप्रतीक्षण या लोकादन्यत्वं वात्मस्वभाषवं हीयते न ज्ञायते। अर्थात् सामान्य पुरुष देवकांक्षा के अतिरिक्त क्या करता है। ? " णणध" अन्यत्र अर्थात् दूसरा कुछ नहीं जानता है। दीन व्यक्ति की कालकांक्षा अर्थात् प्रायोगमनादि के द्वारा मृत्यु की प्रतीक्षा करना भी संभव है, यह लोक से अनन्यत्व एकरूपता अथवा आत्मस्वभाव की हानि है कहा नहीं जा सकता। णाचा आतुरं लोकं णाणावाहिहि पीलितं । जिम्ममे णिरहंकारे भवे मिक्खु जितिदिये ॥४॥ अर्थ:--लोक को आतुर और नानाविध व्याधियों से पीड़ित जानकर भिक्षु ममत्व और अहवार रहित होकर जितेन्द्रिय बने। गुजराती भाषांतर : લોકોને આતુર (પીડાથી દુખત) જોઇને તેમજ નાનાવિધ દરથી પીડાયેલા જોઈને સાધકે મમત્વ અને અહંકારને ત્યાગ કરી જિતેન્દ્રિય (ઇન્દ્રિયોનું દમન કરવું) જોઈએ. लोक आतुर है। दुनियां अपने स्वार्थों के पीछे भाग रही है। किन्तु यह आतुरता ही भय और रोग की परंपरा लिये खड़ी है। क्योंकि कोई भी भोग रोगशुन्य नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति को भोग का मूल्य रोग के रूप में चुकाना पड़ता है। १ काले अपयलं माणे विहरइ । उपासकदना अ० १,
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy