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तीसवां अध्ययन
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अर्थ :- " ऋषिगिरि " नामक ब्राह्मण परिवाजक भर्हतर्षि बोले- पंडित अपने आपको हर प्रकार से प्रमुदित रखे । अज्ञानी के द्वारा किये गये द्वेष प्रयत्न भी उसके लिये हितप्रद होते हैं ।
गुजराती भाषान्तरः
ઋષિગિરિનામક બ્રાહ્મણ પરિવાજક અદ્વૈતર્ષિ મ યા. દુહા છુરો એ તે કલાને સંતુષ્ટ રાખવું જોઈ એ. કેમકે મૂરખ માણસે કરેલા દ્વેષ વિગેરે પ્રયત્નો પણ તેને માટે સહાયક અને હિતપ્રદ બને છે.
ऋषिगिरि में दूसरे ब्राह्मण परिवाजक हैं। वे साधक को लक्ष्य करके कह रहे हैं तेरे भीतर आनंद का स्रोत बह रहा है तो दुनियाँ का हर कम तुझे आनंदित करेगा। अज्ञानियों के द्वेषभरे कार्य क्या तेरे भीतर की शान्तिधारा को खुश कर राकेंगे ? क्या वे तेरे भीतर द्वेष की आग प्रज्वलित कर सकेंगे ? यदि हां, तो तेरे भीतर तेरा अपना कुछ नहीं रहा ! तेरी शान्ति का तूं नियामक नहीं रहा । किन्तु भूल रहा है नापक | वास्तव में तेरी शान्ति का स्रोत तेरे भीतर ही है । इंग्लिश विचारक बोलता है- If you can rest yourself in this coean of peace all the usual noises of the world can hardly affect you. यदि तुम अपने भीतर की शान्ति के सागर में आराम करते रहोगे तो दुनियाँ के शोक तुम्हारे पर असर न डाल सकेंगे। यदि भीतर शान्ति का स्रोत फूट पड़ा है तो अज्ञानियों के द्वेष जन्य प्रयत्न भी आनंद देंगे जैसे कि चालक के कार्य माता को आनंद देते हैं। साथ ही उन प्रयत्नों से तुम्हारा तेज कम न हो सकेगा। गोशालक ने भगवान महावीर की अवनता के लिये कितने प्रयत्न किये, किन्तु वे सभी प्रयत्न म महावीर के जीवन को अधिक से अधिक उज्ज्वल बनाते गये। विचारकों के लिये विरोध तो विनोद है उसी में वे चमकते हैं। एक विचारक ने कहा है
Hardship and opposition are the native rail of manhood and self reliance. कठिनाई और विरोध वह देशी मिट्टी है जिनमें पराक्रम और आत्मविश्वास का विकास होता है। जैसे कोई भी सरकार प्रबल विरोधी दल के बिना अधिक दिन टिक नहीं सकती, ऐसे विरोध के बिना व्यक्ति चमक नहीं सकता। पर आवश्यकता है। उस विरोध को सह लेने की। जिसने विरोध सह देने की कला सीख ली हैं वह जीवन के मैदान में विजय लेकर ही लौटेगा ।
टीका -- येन केनचिदुपायेन पंडितात्मानं मुंचेत् दोषालालेनोदी रिवाद् तदपि स दोष एव तस्य पंडितस्य हितं भवेत् । टीकाकार कुछ भिन्न अभिप्राय रखते हैं- पंडित किसी भी उपाय से अज्ञानियों द्वारा उदीरित दोषों से अपने आपको मुक्त करे तो भी वह दोष ही पंडित के लिये हितप्रद होगा ।
अपडिण्णभावाओ उत्तरं तु पण विज्जती ।
सई कुब्बइ वैसे णो, अपडिष्णे इह माहणे ॥ २ ॥
अर्थ :- अप्रतिभाव से उत्तर नहीं दोता है। साधक स्वयं अनेक में नहीं पडता, अर्थात् भविष्यकालीन संकल्पविकल्पों से गुस्सा नहीं होता। साधक स्वयं द्वेप नहीं करता है और जो अप्रतिज्ञ होता है वही यथार्थ ब्राह्मण होता है। गुजराती भाषान्तर:
અપ્રતિજ્ઞ( રાગ-દ્વેષવિહીન )ભાવથી જવાબ મળવાનો સંભવ નથી. સાધક પોતે અનેક વસ્તુઓની વિચાર કરતો નથી. એટલે ભવિષ્યકાલમાં થવાના કાર્યોનો સંકલ્પ ( ઉગાઉ વિચાર ) વિકલ્પ ( કામ થશે કે નહીં એને માટે સંશય ) એના વિચારોમાં મગ્ન રહેતો નથી. સાધક કોઈનો દ્વેષ કરતો નથી અને જે માજીસ પ્રતિજ્ઞ ( પ્રેમ કે દ્વેષથી રહિત ) હોય છે તેજ બ્રાહ્મણ કહેવાય છે.
अप्रतिज्ञ भाव रागद्वेष रहित माव है। उसके सामने कितने भी परिषद् आवे, अज्ञानी उम्र पर कितने भी प्रहार क्यों न करे वह उत्तर न देगा। अतः साधक अप्रतिज्ञात भाव में रहे और प्रद्दार कर्ता पर भी आशीर्वाद बरसाये । यद्यपि यह एक कठिन साधना है। दक्षिण के प्रसिद्ध विचारक तिरुवर बोलते हैं-भूखे रहकर तप करनेवाले निःसंदेह महान् हैं, किन्तु उनका दर्जा उन लोगों के बाद ही है जो अपनी निंदा करनेवालों को क्षमा कर देते हैं। वास्तव में जो बदला न लेने की भावना से उपरत है वही यथार्थ है ।
अप्रतिज्ञ भाव का अर्थ है जो क्रोध का उत्तर क्रोध से देने की प्रतिज्ञा नहीं करना । वदला या प्रतिहिंसा की भावना हृदय की नीचता की द्योतक है। प्रसिद्ध विचारक बेकन बोलता है-
He that studieth rovenge keepeth his own wounds green which otherwise would heal and do well,