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________________ चौतीसवाँ अध्ययन एक विचारक ने ठीक कहा हैPlcsuro 's coach is a virtue's grave. भोग का सिंहासन सद्गुण की कम है। क्षणिक तुष्टि के पीछे आनेवाली संकटों की बाढ़ को साधक अपनी आंखों से देखता है। अतः जन मानल की उस अशान्ति में भी साधक प्रेरणा के मीज खोजे और आतुरता का परित्याग कर ममकार और अहंकार से विहीन हो जितेन्द्रिय बने । गंयमस्वपुणे जनहासितो। से हु दंते सुहं सुयति णिरुषसग्गे य जीवति ॥५॥ अर्थ:-पंचमहावतों से युक्त, कषाय रहित, जितेन्द्रिय और दमनशील साधक सुख से सोता है और उपसर्ग रहित जीवन जीता है। गुजराती भाषांतर : પંચ મહાવતેથી યુક્ત, કષાય વગર, ઇન્દ્રિય પર કાબૂ મેળવેલ અને દમનશીલ સાધક સુખથી નીંદ લે છે અને કિરવગરનું જીવન ગુજારે છે. आत्मिक शान्ति कौन पा सकता है और किसका जीवन कठों और पीड़ाओं से मुक रहता है इसका उत्तर प्रस्तुत गाथा दे रही है । अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के पंच महावत जिसकी आत्म-शान्ति की सुरक्षा कर रहे हैं । इच्छाओं की रस्सियों को जिसने तोड़ डाला है और कपाय की ज्वाला जिसकी शान्त हो चुकी है। वही आत्म दमनशील साधक सही अर्थों में सुख की नींद सोता है । वासना जन्य कष्ट उसके जीवन में प्रवेश नहीं पा सकते। "सु सुयति" यह एक मुहावरा है। मानष जब किसी बड़े कट से मुक्ति पाता है राब बोल उठता है-अब मैं सुख की नींद सोऊंगा। इसी प्रकार जो साधक इच्छाओं की पीड़ा से मुक्त हो जाता है वही पूर्ण सुख की अनुभूति करता है। जे ण लुभति कामेहि चिण्णसोते अणासवे । सध्ध-दुक्ख-पहीणो उसिद्ध भवति णीरए । अर्थ-जो कामों में लुब्ध नहीं होता है और जो छिनस्रोत है और अनाश्रित होता है, वह समस्त दुःखों से मुक हो कर्मरज रहित सिद्ध होता है। गुजराती भाषांतर : જે માણસને વાસનાઓ આકર્ષિત કરી શકતા નથી, સ્ત્રોતોને છેદી નાખી અનાશ્રિત બની ગયો છે તેજ માણસ બધાં દુઃખોથી મુક્ત બની કર્મરજથી રહિત સિદ્ધ બને છે. वासना मैं जिसे लुभा नहीं सकती वही वासना के स्रोत को सुखा सकता है और कर्मालव को रोक सकता है। जो आखव रहित है वही दुःख-परंपरा को रोक सकता है और वही आत्मा कर्म-रज-रहित हो, शाश्वत सिद्ध स्थिति पा सकता है। प्रोफेसर शुनिंम् लिखते हैं तेहतीसवें अध्याय की भांति ही यहां पर की घटनाओं का निश्चित संख्या के रूप में वर्णन करते हैं। स्थानोग सूत्र में भी यह संख्या के रूप में आया है, किन्तु वहां इतना स्पष्ट नहीं है। श्रद्धावान् को अज्ञानी के सामने रखा है और विद्वान् पुरुष अज्ञानियों के प्रहार से अपने आपको कैसे मुक्त करे यह इसमें बताया गया है। जो उस पर प्रहार होते हैं सद्विचारों के द्वारा उन्हें अच्छे रूप में स्वीकार करता है, क्योंकि बह समस्त बंधनों से मुक्त है । आवारोगसूत्र में “ अनदिन" शब्द अनेक बार आया है। उसमें बताया गया है कि वैर के कार्यों का परिणाम सुन्दर नहीं आता है। तृतीय श्लोक में दीन शब्द छठौं विभक्ति में आया है जिसका मतलब यह है कि वह ( साधन) शरीर को टिकाये रखने के लिये वह जीता है, पश्चात् इच्छाओं की समाप्ति एवं ज्ञान प्राप्ति के बाद वह आत्मा संसारी जीवों के साथ नहीं रहता। एवं से सिद्ध बुद्ध गतार्थः । इति इसिगिरिअईतर्षि प्रोक्त चौतीसमं अध्ययन १ वेराज वैरं वरहा।
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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