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अदालक अतर्षि प्रोक्त पैंतीसवां अध्ययन
अनंत युग से पाएगा सान्ति की खो के लिये ज्वालामुखी पर आरोहण से हो रहे
मेंनटक रहा है। किन्तु शान्ति के लिये किये गये वे सभी प्रयत्न शीतल हवा हिमालय के बदले आलामुखी को चुनकर शान्ति की आशा केवल स्वप्न । वृध के बर्तन को आग पर रखकर उसे उबालने से बचाना संभव नहीं है, इसी प्रकार कषाय की ज्वाला के निकट रहकर शान्ति की सांस लेना भी संभव नहीं है।
हैं।
मानव मुक्ति के लिए सो सो प्रयत्न करता है किन्तु जब तक वह अपने हृदय से कषाय मुक्ति नहीं पा सकता । मुक्ति न वेष बदलने में है, न किसी संप्रदाय विशेष के लुंटे से मुक्ति है कपाय विजय में ।
को दूर नहीं करता तब तक बंध जाने में ही मुक्ति है।
विश्व के हर महापुरुष ने क्रोध की निन्दा की हैं । आचार्य विनोबा कहते हैं - संपूर्ण संसार को एकता के सूत्र में बांधने की योजनाएं बनाना सरल हैं, किन्तु अपने हृदय में रहनेवाले क्रोध पर विजय पाना अत्यन्त कठिन है। क्रोध की मानव का मनोबल । क्रोध मानव की विचार शक्ति को दुर्बल बनाता हैं, इसीलिये तो उसका अम्ल सर्व प्रथम उसके चालक को ही घायल करता हैं ।
खुराक
आग ठंडे पानी से भी मुझ सकती है और गरम से भी। किन्तु विश्व के तीन मानत्रों में एक भी ऐसा सूर्ख न होगा जो आग लगने पर पानी को गरम करने बैठे। ठीक ऐसे ही समाज या परिवार की समस्या शान्त दिमाग से भी दल होती है. और कभी गर्म दिमाग भी उसको सुलझा देता है किन्तु जो समस्या को सुलाझने के लिये पहले क्रोध के द्वारा मस्तिष्क को उबालने लगे उसे क्या कहा जाय ? ।
को पाप का जनक और पुण्य का भक्षक है। एक विचारक ने कहा है
Anger blows out the lamp of the mind को मन के दीपक को बुझा देता है ।
हमें सोचना है क्रोध क्यों आता है ? क्रोध की जड़ अहंकार में है। जब मनुष्य के "अहं" पर चोट लगती है तो दर्प का सर्प फुफकार उठता है। उसके खून में उबाल आ जाता है और मस्तिष्क की दिशा सूचक मुई भी घुम जाती है। चद्द सही रास्ता नहीं दिखाती । उसकी जीभ भी ठीक काम नहीं देती। वाणी और देव की यही विकृति क्रोध है । प्रकृतिस्थ होने के लिये विकृति को समाप्त करना होगा। प्रस्तुत अध्याय कषाय-विजय की प्रेरणा देता है ।
उहिं ठाणेहिं खलु भो जीवा कुप्पंता; मज्जयंता गुहता लुम्भंता वज्जं समादियंति, वज्रं समादित्ता चाउरंत संसारकनारे पुणो पुणो अत्ताणं परिविद्धंसंति, तं जहा कोहेणं माणेणं मायाए लोमेणं ।
अर्थ- को करते हुए, मद करते हुए, छिपाते हुए और लोभ करते हुए जीव इन चार स्थानों से पाप को करते हैं और पाप प्रण करके चातुरन्त संसार वन में पुनः पुनः अपनी आत्मा को ( आत्म गुणों को ) नष्ट करते हैं । ये हैं क्रोध के द्वारा, मान के द्वारा, माया के द्वारा और लोभ के द्वारा ।
गुजराती भाषांतरः
ગુસ્સાવાળો, મદથી ઉન્મત્ત, છુપાવનારો અને લોભી માસ પોતપોતાના ચાર કૌશી પાપોનો સંગ્રહ કરે છે. પાપોનો સંચય કરી ચાતુરન્ત સંસારરૂપી જંગલમાં આવી ઘડી ઘડી આમ( ના ગુણો )ને નાશ કરે છે. तेर्ता (उशवनार ) आहे. ोध, मान, माया, अने बोल भेटले या चारथीन यापनो संचय थात्र हो.
htra मान माया और लोभ ये आत्मा की विभाव परिणतिय | आत्मा स्वभाव से हटकर जब इन विभाव परिगतियां में जाता है तब सावय को ग्रहण करता है। वह सावय पाप आत्मा को पुनः विभाग की ओर ले जाता है और इस रूप में आत्मा की भवपरंपरा की लता सदैव पवित और पुष्पित रहती हैं। दशवेकालिक सूत्र में भगवान महावीर की वाणी गूंज रही है।
१ कषायमुक्तिः किल एव मुक्तिः २ पि