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________________ पैंतालीसवाँ अध्ययन २७७ साधक को स्थूल हिंसा से बचना है तो सर्वप्रथम उसे मन में पैदा होने वाली सूक्ष्म हिंसा को रोक देना होगा। उसके लिये आसक्ति के पशि को छेदना होगा। यह समत्व का उपासक बने उसके सामने मनोज्ञ या अमनोज्ञ कैसा भी भोजन आए उसे वह समभाव के साथ ग्रहण करे। सोने के लिये सुन्दर भवन मिले या वृक्ष की सूनी छांव, दोनो के प्रति उसके मन में एकधारा रछे । समभाव की साधना के द्वारा साधक बायुमा अप्रतिबद्ध होगा और मोह की जाल को पारकर जाएगा फिर जाल पानी को भी नहीं रोक सकती, तो साधक तो हवा है दुनियां के जाल उसकी प्रगति में बाधक नहीं हो सकते। 'अतीरसे णेव' का पाठान्तर 'अतीरमाणेव' गी मिलता है, उसका अर्थ होगा तीर तट को प्राप्त किये बिना आनंद न पाए । क्यों कि साधक के जीवन का लक्ष्य है भवसागर के तट पर पहुंचना। बिना तट पर पहुंचे बीच में आनंद कैसा? सागर की असीम जलराशि में पड़े हुए मानव का एकमात्र लक्ष्य होता है तट पर पहुंचना । टीकाः--पापं न कुर्यात प्राणिनो हन्यादतिगतरसः न कदाचिदुचावचेषु शयनासनेषु रमेत् , किन्तु तान् समतिक्रमेद्, वायुरिव जालम् । गतार्थः । वेसमणेणे अरहता इसिणा बुइतं जे पुमं कुरुते पावं ण तस्सऽप्पा धुवं पिओ। __ अप्पणा हि कई कर्म अप्पणा चेव भुजती ॥ ३॥ अर्थ:-वैश्रमण अर्हता कोळे-जो पुरुष पाप करता है उसे निश्चयतः अपनी आत्मा प्रिय नहीं है, क्योंकि वकृत कर्म को आरमा स्वतः भोगता है। गुजराती भाषान्तर: શ્રમણ અહંતર્ષિ બોલ્યાઃ—જે માણસ પાપ કરે છે તેને પોતાનો આત્મા પ્રિય નથી; કેમ કે તે આત્મા પોતે કરેલ કૃત્યોનો ભોગ પોતે જ બને છે. पूर्व गाथा में पाप प्रवृत्ति के लिये निषेध किया था। यहां अतिर्षि उसका हेतु बता रहे हैं। जो पुष्प पाप प्रवृत्ति कर रहा है, गहराई से देखा जाए तो उसे अपनी आत्मा से प्रेम नहीं है. क्योंकि यह निश्चित है वकृत कर्म अवश्य उदय में भायेंगे और उस दिन उसे उनका प्रतिफल भोगना होगा, इन रूप में देखा जाए तो वह स्वयं अपने लिये कांटे बिछा रहा है। अथवा पापशील आत्मा के लिए पाप निश्चित रूप से प्रिय नहीं हो सकते । पाप परिणति कटु परिणाम लेकर आएगी। तब के पदार्थ जिसके अभाव में वह जीना दूभर समझ रहा है उनके सनुभाव में जीमा कठिन हो जाएगा। साथ ही अशुभ प्रवृत्ति आत्मा लिये भी प्रिय न ही हो सकती, क्योंकि वह विभाव दशा है और हर बुरे काम के लिये अन्तर्मन इन्कार करता है। पावं परस्स कुव्वंतो हसते मोहमोहितो। मच्छो गलं गसंतो वा विणिधायं ण पस्सति ॥४॥ पचुप्पण्णरसे गिद्धो मोहमल्लपणोल्लितो । दित्तं पाचति उकंठं चारिमाझे व वारणो ॥५॥ परोवघाततल्लिच्छो दप्पमोहबलुदूरो। सीहो जरो दुपाणे वा गुणदोसं न विदति ॥ ६॥ सबसो पावं पुरा किया दुक्खं घेदेति दुम्मती । आसत्तकंठपासो वा मुकधारो दुट्टिओ ॥ ७॥ पावं जे उपकुति जीया सोताणुगामिणो। वडते पावकं तेसि अणगाहिस्स वा अणं ॥८॥ अणुबद्धमप्पसंता पघुप्पण्णगवेसका। ते पच्छा दुश्वमच्छेति गलुच्छिसा जहा झसा ॥९॥ आताकडाण क्रम्माणं आता भुंजति जं फलं । तम्हा आतस्य अट्ठा पपायमादाय वजय ॥ १०॥ १. मोर्वे,
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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