SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 310
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वैश्रमण अर्हतर्षि प्रोक्त पैंतालीसवाँ अध्ययन दृष्टिया दो होती है। एक अन्तरष्टि और दूसरी बहिर्दृष्टि । अन्तर्दष्टि साधक आत्मिक सुख की परिधि को मानकर चलता है। बहिष्टि मानव बाहर के सुख को प्रमुख मानकर चलता है। अन्तर्दष्टा साधक के हृदय में बाहरी पदार आसक्ति नहीं होती । वह व्यक्ति के बाहरी रूप को ही नहीं, अन्तर को भी देखता है । मानव का बाहरी रूप असुन्दर ही सकता है, किन्तु वह हमेशा के लिये वैसा ही रहेगा। यह स्वीकार नहीं करता। इसी लिये पापी से पापी मानव में भी वह दिव्य मानवता का दर्शन करता है। उसके अन्तर की सोई हुई मानवता को जगाता है। करुणा के कोमल हाथों से औरत को घोरेट कर है राटा हाथ केदय में करुणा का स्रोत रहता है। सत्र पर अपनी करुणा की धारा बहाता है । प्रस्तुत अन्तिम और सबसे बड़े अध्ययन से अन्तर्दर्शन की प्रेरणा प्राप्त होती है। उसका प्रथम श्लोक है: अप्पं च आउं इह माणवाणं सुचिरं च कालं णरयेसु वासो।। सब्वे य कामा णिरयाण मूलं को णाम कामेसु बुहो रमेजा ॥१॥ अर्थ:-यहां मनुष्यों की आयु अल्प है और नरक में सुदीर्घ काल तक वास होता है और सभी काम नरक के मूल हैं। फिर कौन बुद्धिमान् काम वासनाओं में आनंद मानेगा ।। गुजराती भाषांतर: આ દુનિયામાં મનુષ્યના આયુષ્યની મર્યાદા ઘણીજ ઓટ્ટી ( કંકી) છે અને નરકમાં રહેવાની કલમર્યાદા ઘણું લાંબી છે; અને બધી વાસનાઓ નરકને લીધે છે. એમ જાણીને કયો ડાહ્યો માણસ કામવાસનામાં આસકત રહેશે? मानव मन की भोगासक्ति दूर करने के लिये वासना विरक्ति के संदेश के साथ प्रस्तुत अध्ययन का आरंभ होता है। मानन के अल्प सुख को नरक के अनंत दुःखों के साथ उपमित किया गया है। मानव की क्षणिक सुखानुभूति अपने पीछे नरकों की सागरोपमों की दुःखपरम्परा लिये चलती है। नहर को देख नदी की याद आ जाती है, फल को देख कर फूल की स्मृति हो आती है, ऐसे ही वासना मरे चित्त देखकर नरक की स्मृति हो उठती है। काम की ज्वाला से कम भ्यानक नहीं है। अन्तर इतना ही है एक स्थूल आग है, दूसरी सूक्ष्म है। भगवान महावीर ने काम को मार और नरक बताया है। अतिर्षि कह रहे हैं सभी कामों का पर्यवसान नरक में होता है। का:--मरूपं च भायुरिह मानवाना सुचिरं च कालं यावझरकेषु वासः । सबै च कामा नारकाना मुलं को नाम बुधः कामेषु रमत् । गताः । पाचं ण कुजाण हणेज पाणे, अतीरसे व रमे कवायी। उद्यावएहिं सयणालणेहिं वायु ब्व जालं समतिक्कमेजा ॥२॥ अर्थः-साधक न पाप करे न प्राणियों की हिंसा ही करे | विषयों से उपरत साधक, उच्च नीच शयनासनों में आनंदित न हो, किन्तु हवा की भौति जालका अतिक्रमण करदे। गुजराती भाषान्तर: સાધકે કોઈ તરહનું પાપ ન કરવું જોઈએ, ન કે જીવોની હિંસા પણ કરવી જોઈએ. વિષયોથી વૈરાગ્ય પામેલા સાધકને ઉચા કે નીચા શયન અગર આસનમાં આનંદ કે દુ:ખ ન થવું જોઈએ. જેમ જાળમાંથી હવા આરપાર નીકળી જાય છે તેમ આસક્તિથી પાર થઈ જવું જોઈએ. प्रस्तुत गाथा में पाप और उसः कारणों से दूर रहने की प्रेरणा दी गयी है। मनुष्य पाप करता है और हिंसा मी करता है । उस हिंसा के प्रेरक तत्व है मनुष्य के मन के लोभ और मोह । आखिर वह ईिसा क्यों करता है। किसी पदार्थ या व्यक्ति प्रति उसके मन में लोभ रहता है, उसे पाने की चेष्टा रहती है। अतः उसके विघ्नभूत जो भी व्यक्ति होते है उन पथ के अवरोधको को बह दूर करना चाहता है। उसके लिये यह हथियार का भी आश्रय लेता है। अतः मानव के मनके भीतर घुसकर देखा जाय तो ये लोभ और मोह के कीटाणु ही हिंसा को जन्म देते हैं। अतः विचारकों ने मोह को हिंसा का सूक्ष्म रूप बताया है।
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy