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"इसि भासियाई" सूत्रपरिचय
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परम शान्ति ही निर्वाण है। उस परम शान्ति को जाने के लिये हर मुमुक्षु आत्मा प्रयत्नशील है । तप और संयम की साधना के द्वारा आत्मा कर्म क्षय करता है तब वह भब परम्परा को समाप्त कर निर्वाण को प्राप्त करता है ।
कहते हैं
ह वत्तिक्खए दीवो जहा चयति संतति । मायाण बन्धरोहम्मितया भव संतति ॥
जैसे तेल और बाती के क्षय से आदान- कर्मों का ग्रहण और बन्ध का यहां निर्माण को दीप निर्वाण से उपमित किया गया है। बौद्ध दर्शन भी दीप निर्वाण से आत्म निर्वाण को. उपमित करता है, पर दोनों उपमाओं में उतना ही विभेद हैं जितना कि जैन और बौद्ध दर्शन में । जैनदर्शन दीप कलिका की सन्तति रूप भव-परम्परा को मानता है । उसके क्षय से आत्मा की शुद्ध स्थिति की प्राप्ति स्वीकार करता है जबकि बौद्ध दर्शन वासना की संतति ( परम्परा ) के क्षय के साथ आत्मा का भी क्षय मान लेता है। जोकि अत्यन्त कारुणिक अन्त है । जब आत्मा ही समाप्त हो गया तब इतनी साधना किसलिये ? यह तो वैसा हुआ कि रोग को मिटाने चले, पर रोग मिटा और उसी क्षण रोगी भी चल बसा। ऐसी चिकित्सा क्या मूल्य रखती है ।
महाकवि अश्वघोष काव्यात्मक शैली में दीपनिर्वाण से आत्मनिर्माण को उपमित करते हैं
दीपक जब निर्माण प्राप्त करता है तो न वह ऊपर जाता है, न नीचे जाता है । न दिशा में जाता है, न विदिशा में | स्नेह के क्षय से केवल शान्ति को प्राप्त करता हैं, ऐसे ही निर्वाण प्राप्त आत्मा न पृथ्वी पर आता है न आकाश में, न वह दिशा में जाता हैं न विदिशा में । क्लेश क्षय होने पर केवल शान्ति प्राप्त करता' है ।
- इसिभा. म. ३१६
१.
जैन दर्शन ने कहा है निर्वाण के बाद आत्मा शुद्ध स्थिति में लोकाय पर स्थित रहता है । उस निर्माण प्राप्त करने के लिये एक प्रमुख साधन है सम्यग्दर्शन । तत्य-प्राप्ति के लिये सर्वप्रथम उसके स्वरूप का ज्ञान होना आवश्यक है । वस्तु के स्वरूप पर निश्चित श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है। जैन दर्शन में सम्यग्दर्शन की तीन प्रकार से ब्याख्या की गई हैं | प्रथम व्याख्या के अनुसार सुदेव सुगुरु और सुधर्म पर श्रद्धा रखना ही सम्यग्दर्शन है ।
२.
३.
४.
दीपक दीपकलिका रूप संतति को समाप्त कर देता है। उसी प्रकार आत्मा अवरोध करके मय परम्परा को क्षय करता है ।
ज्ञान की प्रथम सीढ़ी तक यह व्याख्या ठीक हैं किन्तु जब विचार चर्चा आगे बढ़ती है, तब यह व्याख्या कुछ अपूर्ण सी रह जाती है। यदि देव गुरु धर्म पर श्रद्धा ही सम्यग्दर्शन है तो जो समस्त विकारों पर विजय पाकर जो अरिहन्त बन चुके हैं उनके लिये देव कौन हैं, उनके गुरु कौन हैं, और उनका धर्म क्या है । क्योंकि ये स्वयं ही देव स्वरूप हैं । उनका ज्ञान स्वयं के लिये गुरु तुल्य हैं और उनकी वाणी ही धर्म है । अतः दूसरी व्याख्या आती
दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेतो नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् । दिर्श न काचित् विदिर्श न कांचित् क्षयात्केवलमेति शान्तिम् ॥ तथाकृते निर्वृतिमभ्युपेतो नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् ।
दिशं न कचित् विदिर्श न कांचित्, क्लेशयात् केवलमेति शान्तिम् ॥
तदनन्तरमूर्ध्वं गच्छत्या लोकान्तात् । - तस्वार्थ अ. १०1५ तार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ॥ - तत्वार्थ सूत्र अ. १-२ या देवे देवता बुद्धि गुरौ च गुरुता मतिः ।
धर्मे च धर्मधीः शुद्धा सा सम्यक्त्वमिदमुच्यते
- अश्वघोष, बुद्धचरित
- आ. हेमचन्द्र योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश.