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________________ इसि-भारियाई अथर्ववेद में कहा गया है-ब्रह्मचारी अस्म ( समष्टि रूप सन्म अथवा ज्ञान ) धारण करता है। उसमें समस्त देवता ओतप्रोत होते हैं। __ आचार्य भी ब्रह्मचर्य के द्वारा ही ब्रह्मचारियों को अपने शिक्षण और निरीक्षण में रखने की योग्यता और क्षमता का सम्पादन करता है । सत्य और संयत जीवन से रहनवाला मनुष्य ब्रह्मचर्य द्वारा ही अपनी इन्द्रियों को पुष्ट और कल्याणोन्मुख बनाने और उन्हें साधना की ओर प्रवृत्त करने में समर्थ होता है। ( दुःख के विनाश के लिये हमें अपने स्वरूप का ज्ञान करना होगा । मैं कौन हूं? मेरा स्वरूप क्या है। यह शरीर और ये इन्द्रियां क्या मेरा स्वरूप है ? कूकर और शूकर के रूप में भटकना, रोना और चीखना क्या मेरा खरूप है ! वज्जिय पुत्र अर्हतर्षि साधक को प्रेरणा देते हैं, अज्ञान ही दुःख का मूल हेतु है । सिंह की भांति अपने स्वरूप का ज्ञान करे और कूकर और शूक्रर के रूप में आत्मस्वरूप को भुलानेवाली कमों की शंखला को तोड़ फेंको। ऋग्वेद का अन्तद्रष्टा ऋषि कहता है मैं कौन हूं। मैं स्वयं इन्द्र हूं। मेरी पराजय नहीं हो सकती । मुझ में अनंत शक्ति है । रोम और धीखना मेरा सभाप नही है। . जो अपने स्वरूप को भूलकर पर रूप में आसक्त होता है वह अपने स्वरूप का विनाश करता है और अपने खरूप को भूलानेवाला अन्धकार में प्रवेश करता है । जिसने अपने स्वरूप का विस्मरण किया है वही वैषयिक पदार्थों में आनंद की अनुभूति करता है। आध्यात्मिक आनंद की अनुभूति में वैषयिक आनंद बाधक है इसीलिये विचारकों ने साधक को वासना और उसके प्रलोभनों को दूर रहने का परामर्श दिया है। पल्कक चीरी अहंतर्षि कहते हैं:-हे पुरुष ! तू स्त्रीवृन्द की संसक्ति से दूर रह और अपना अबन्धु न बन । नारी में आसक्त अपने आपका शत्रु होता है। अतः जितना भी संभव है इस मन की बासना से युद्ध करो, विजयी बनों । कठोपनिषद के अतिर्षि कहते हैं-मूद लोग ही वाय विषयों के पीछे लगे रहते हैं । वे मृत्यु-अर्थात् अनात्मा के विस्तृत जाल में फंस जाते हैं, किन्तु विवेकी लोग अमृतत्व को जानकर अध्रुव अनित्य पदार्थों में नित्यत्त्व की कामना नहीं करते हैं। ___महाकवि भारवि अपने प्रसिद्ध काव्य किरातार्जुनीय में लिखते हैं-यौवन की शोभाएं शरद ऋतु के मेघ की छाया के समान चंचल होती हैं। इन्द्रियों के विषय भी केवल तत्काल रमणीय होते हैं और अन्त में दुःख देनेवाले होते हैं। १. आचार्यों ब्रह्मचर्ये ब्रह्मचारिणमिच्छते। -अथर्च. ११५.१७ २. इन्द्रो ह अयचर्यण देवेन्यः खराभरात् । - २२।५।१६ ३. दुक्खमूलं च संसारे अण्माण समनि सिंगारित्र सरूपसि इण कम्माणि मृन्द्रतो। - इसिमारियाई अ. श८ ४. अहमिन्द्रो न पराजिये। - ऋग्वेद १०४५४५ ५. असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसा घृताः । तास्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः॥ - यजु, ४०३ इसिभासियाई अध्ययन अ, ६ गा.३ ७. पराचः कामाननुयन्ति बाला स्ते मृत्योर्यान्ति विततस्य पाशम् । अथ धीरा अभूतत्वं विदित्वा. ध्रुवमधुवेविह न प्रार्थयन्ते ॥ - कठोपनिषद २।११२ शरदम्धुधरच्छाया गत्त्रयों यौवनश्रियः । आपातरम्या विषयाः पर्यन्तपरितापिनः ॥ - किरात १११२
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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