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________________ "इसिभासियाई" सूत्रपरिचय मिलाइयेयस्तु सर्वाणि भूसाभ्यारमन्येवानुपश्यति । सर्वभूतेषु 'चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ॥ -ईशोपनिषत् ६ जो समस्त प्राणियों को अपने में और अपने को समस्त प्राणियों में देखता है, वह उपयुक्त एकात्मदर्शन के द्वारा किसी को घृणा या उपेक्षा का पात्र नहीं समझता है । अर्थात् वह सबके हित में आपना हित समझता है । बौद्ध दर्शन में आसान उपमं करवा न हनेय्य न घातये. - धम्मपद (१२६) सभी प्राणियों को अपने जैसा सभहकर किसी भी प्राणी की घात नहीं करना चाहिये । गीता भी कहती हैयोगस्थः कुरु कमाणि संग त्यक्त्वा धनंजय ! सिद्ध्यसिखोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते । -गीता श१९ हे अर्जुन : कर्म फल की आसक्ति छोड़कर सिद्धि और असिद्धि में समबुद्धि रखकर और योग में स्थित होकर कर्म करो ! क्योंकि उपयुक्त समत्व भाव ही योग कहा जाता है। ___ सत्य ही विश्व का परित्राता है । साधक अविश्वास की भूमि असत्य से दूर रहे। देव नारद अर्हतर्षि कहते हैं आत्म-शान्ति का गवेषक साधक त्रियोग और त्रिकरण द्वारा असल्य का परिहार करे मुसावादं तिविहं तिविहेण णेब बूया णभासए रितियं सोयवलक्षण ।। -इसिभा० अ. मिलाइये-ऋग्वेद में ऋत सत्य को शान्ति का स्रोत बताया है तस्य हि शुरुषः सन्ति पूर्वीसस्य धीतिजिनानि हन्ति । ऋतस्य श्लोको वधिरा ततई, कर्णा बुधानः शुचमान आयोः । ऋतस्य व्हा धरणानि सन्ति. पुरूणि चन्द्रा वपुषे वपूंषि । ऋतेन दीर्घमिषणन्त पृक्ष. ऋतेन गाव ऋतमा वियेशुः । - ऋग्वेद १२३०९-६ त अनेक प्रकार की सुख शान्ति का स्रोत है। ऋत की भावमा पापों को नष्ट करती है। मनुष्य को उद्बोधित और प्रकाश देनेवाली ऋत की कीर्ति बहरे कानों में भी पहुंच चुकी है। ऋत की जड़ें सुदृढ़ है। विश्व के नाना रमणीय पदार्थों में ऋतमूर्तिमान हो रहा है। ऋत के आधार पर ही अन्नादि खाद्य पदार्थों की कामना की जाती है। ऋत के कारण ही सूर्य-रश्मियां जल में प्रविष्ट हो उसको ऊपर ले जाती है। । सा मा सत्योक्तिः परिपातु विश्वतः । - ऋग्वेद १०॥३७२ सत्य भाषण द्वारा ही मैं अपने आपको सब चुराइयों से बचा सकता हूं। । सत्य का द्रष्टा ब्रह्मतेज को प्राप्त करता है । वह आत्मा की शुद्ध ज्योति है । समस्त तपः साधनाओं में ब्रह्मचर्य उत्तम तप है। ऋषिभाषित सूत्र में बताया गया हे ब्रह्मचर्य स्वयं एक उपधान तप है । वैदिक धारा के अमृत स्रोत १. तयेसु वा उत्तम वम्भनेरं -सूत्रकृतांग, वीरस्तुति इतिभासियाई अ. १ गा, १० ब्रह्मचारी अन घाजद् विभर्ति. तस्मिन् देवा अधिविश्वे समेताः। - अथर्व ११०५।२४
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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