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________________ इस भासियाई यजुर्वेदीय कठोपनिषद में एक रूपक आता है:- शरीर रूप रथ में आत्मा रथी हैं, बुद्धि सारथि है, मन लगाम है, इन्द्रियां घोड़े और विषय उनके विचरने के मार्ग हैं। इन्द्रिय और मन की सहायता से आत्मा पदार्थों का उपभोग करता है । जो प्रज्ञा संपन्न होकर संकल्पवान मन से स्थिर इन्द्रियों को सुमार्ग में प्रेरित करता है वही मार्ग के अन्त तक पहुंचता है। जहां से वापिस लौटता नहीं हैं। I २६ दर्शन की त्रिपथा से भारतीय दर्शन की त्रिपथगा (गंगा) भारत में तीन धाराओं में बही हैं । जैन बौद्ध और वैदिक संस्कृति दर्शन की चिपथगा है। तीनों के बीच बहुत कुछ वैचारिक साम्य है । कहीं थोडा वैषम्य भी है। आचार और व्यवहार में यथपि वे बहुत कुछ दूर जा पड़ी हैं फिरभी विचार के क्षेत्र में कुछ साम्य भी है और वह साम्य कहीं कहीं तो इतना स्पष्ट है कि है । गाई से अध्ययन करने पर अर्ध साम्य तो अधिकतर परिलक्षित हो जाता है पर कहीं तो शब्दसाम्य और पदसाम्य तक आश्चर्य प्रद रूप में परिलक्षित हो जाता है। ऋषिभाषित सूत्र में भी ऐसे अनेकों श्लोक है जिनका इतर भारतीय दर्शनों में साम्य मिल जाता है । पैंतीस अध्ययन में अर्हता उद्दालक कहते हैं : / जागरह णरा शिवं मा मे धम्मचरणे पमत्ताणं । काहिंति बहू चोरा दोगतिगमण हिष्टाकं ॥ जागरह जरा गिं जागरमाणस्स नागरति सुतं । जे सुवति न से सुद्दिते जागरमाणे सुही होंति । - इसिमा अ. ३५ गा. २०-२२ मिलाइये - उत्तिष्ठत जात प्राप्य वरान्निबोधत । क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ॥ - कठोपनिषद् १।३।१४. . ( हे अज्ञान से ग्रस्त लोगो) उठो, जागो, श्रेष्ठजनों के पास जाकर ज्ञान प्राप्त करो। जिस प्रकार छुरे की धार तीक्ष्ण होती है और छुई नहीं जा सकती, बुद्धिमान् पुरुष आत्म-ज्ञान के मार्ग को उसी प्रकार दुर्गम बतलाते हैं । बौद्ध दर्शन के प्रसिद्ध ग्रन्थ धम्मपद से मिलाइये. ' अप्पमत्तो मत्तेसु सुसेसु बहु जागरो । अबलस्सं व सीवस्सो हिन्वा याति सुमेधसो || धम्मपद २९ प्रमादी लोगों में अप्रमादी और ( अज्ञान की निद्रा में ) सोते हुए लोगों में जागरणशील बुद्धिमान मनुष्य दुर्बल घोड़े से तेज घोड़े के समान आगे बढ़ जाता है। / नत्थि जागरतो भयं. ३६ जागते हुए को भय नहीं होता । समभाव का साधक सर्वत्र अपने रूप का दर्शन करता है । विश्व के अनंत अनंत प्राणियों में अपनी छाया का दर्शन कर विषम भाव से रहित हो विचरण करता है । सम्वतो विरते ते सन्तो परिणिबुडे । सन्तो विष्पमुप्पा सभ्यत्थेषु समं चरे ॥ - इसिभा. अ. १८ १. आत्मानं रथिनं विद्धि शरीर रथमेव तु बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ॥ इन्द्रियाणि यानाहुर्विषयस्तेषु गोचरान् । आरमेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्ते लाहुर्मनीषिणः ॥ यजुर्वेदीय कठोपनिषद
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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