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________________ " इसिभालियाई" सूत्रपरिचय अर्थात् आर्य जम्बू आचार्य सुधर्मं से बोले व क्षेत्रज्ञ कुशल महर्षि अनंतज्ञानी और अनंतदर्शी यशस्वियों के पथ में स्थित हैं उन (भगवान् महावीर) के धर्म को आप जानते हैं और उनके ध्येय को देखते है । ___ इस प्रकार क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ शब्द जैन बौद्ध वैष्णव आर्य संस्कृति की तीनों धाराओं में समानरूप से व्यवहृत हुआ है और उसके प्रयोग में आश्चर्य जनक समता है । अडतीसवें अध्ययन में इन्द्रियों के सम्बन्ध में चर्चा आई है । यदि पांचों इन्द्रियां सुप्त हैं, तो अल्प दुःख की हेतु बनती हैं । इन्द्रियां क्या है ? आत्मा इन्द्र है और उसकी कार्य में प्रवृत्त शक्तियां इन्द्रियां हैं । शतपथ ब्राह्मण में बताया गया है इन्द्र आत्मा की प्राचीन संज्ञा है । उसी के संपर्क से हमारी इन्द्रियां अपने कार्य में प्रवृत्त रहती हैं। इन्द्र की शक्ति ही इन्द्रियरूपी देवों के रूप में प्रकट हो रही है। इन्द्र ही सबके भीतर बैठा हुमा मध्य प्राण है जो इतर इन्द्रिय प्राणों को समृद्ध करता है। ___कठोपनिषद आदि अन्य भारतीय ग्रंथों में इन्द्रियों की उपमा अश्व से दी गई है । जो शरीर रूपी देवस्थ में इन्द्रियों के सद्अश्वों को जोड़कर बुद्धिरूप सारथि की शक्ति से सफल जीवन यात्रा कर सकता है वही विजय शील महारथि है। जैन आगमों में इन्द्रियों को नहीं मन को अश्व बताया गया है । महामुनि केशीकुमार महान् साधक गौतम को पूछते हैं, है गौतम, तुम एक साहसिक गुः अब पर आरूढ़ हो । वह पबन बेग से दौड़ता है किन्तु आश्रय है कि तुम उसके द्वारा गलत मार्ग पर ले जाये नहीं जाते : महान् सन्त गौतम ने उत्तर देते हुए कहा-उन्मार्ग की ओर दौड़ते हुए उस अश्व को मैं सूत्ररूप रस्सी के द्वारा रोकता हूं, अतः मेरा अश्व उन्मार्ग की ओर न जाकर सन्मार्ग की ओर ही जाता है। महा श्रमणे केशीकुमार फिर पूछते है:-वह अश्व कोनसा है ? सतगौतम बोले-मन ही यह साहसिक भयंकर दुष्ट अन्च है, उसे मैं रोकता हूं और धर्म-शिक्षा के द्वारा उसे जाति संपन्न अश्व की भांति चलाता हूँ। ... शतपथ ब्रामण में बताया गया है मन ही देवों का बाहत अव है, इसी पर आरूढ़ होकर देव विचरण करते हैं। मनो वे देववाहन । मना हीदं मनस्विनं भूयिष्ठ पनीवाशते । शतपथ (१३/६.) ऋग्वेद में देव वाहन अश्व का वर्णन है: वृषो अग्निः समिध्यतेऽश्वो न देववाहनः । तं इनिष्मन्त ईळते (अ. ३।२७।११1) १. पंच जागरओ सुत्ता अप्प दुक्खस्स कारण। तस्सेत्र तु विणासाय पणे बहिब संतयं ॥ २. स योऽयं मन्ये प्राणः । एष एवं इन्द्रः । तानेष प्राणान् मध्यत' इन्द्रिवणेन्द्ध । यदै तस्मादिन्धः । इन्धी ह वै तमिन्द्र इत्याचक्षते परोक्षम् ॥ ६॥ १। ६२ अयं साहसिओ भीमो दुहस्सो परिधावइ । अंसि गोयम आरूदो कह सेण न हीरसि ? पहातं णिगिहामि सत्यरम्सी रामाहियं । नमे गच्छई उम्मरमं मरगं च पंडिवजइ ॥ ५५-५६ उतरा. अ. २३. ४, मणो साहसीओ भीमो दुहस्सो परिघावइ । तं सम्मं णिगिण्हामि धम्मसिक्खाइ कंथग ।। उत्तरा. अ. २३. गा. ५९
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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