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इसि-भासियाई है। तत्वों का स्वरूप दर्शन कर उसके प्रति अचल आस्था रखना ही सम्यग्दर्शन है। चैतन्य का स्वरूप क्या है यह भेद विज्ञान पाकर पदार्थों का खरूप दर्शन करना सम्यग्दर्शन है । पदार्थ विज्ञान रूप सम्यग्दर्शन प्राप्त होने के माव ही मिथ्याच्चान सम्यग्ज्ञान के रूप रूप में परिणत होता है।
भगवतीसूत्र में आचार्य सुधर्मास्वामी सम्यक्त्व की परिभाषा करते हुए फरमाते हैं कि वही सत्य है जो जिनेश्वर देव ने प्रतिपादित किया है और ऐसा श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है।
तत्वार्थसूत्रकार आचार्य उमास्वाति सम्यग्दर्शन के सम्बन्ध में लिखते है-सम्यग्दृष्टि का ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान होता है । अतः आप तीनों ज्ञान ( मतिश्रुतावधि ) अज्ञान भी होते हैं, क्योंकि वे मिथ्यात्व दशा में भी पाये जाते हैं।
यह तत्व रुचि रूप सम्यग्दर्शन भी एक स्थान पर जाकर सीमित हो जाता है । सिद्ध म्वरूप में स्थित आत्मा
तत्व रुचिका कोई सम्बन्ध ही नहीं है। यद्यपि उनके अनंत ज्ञान में विश्व के समस्त पदार्थ-साध समस्त पर्यायों के साथ प्रतिमासित होते हैं फिर भी सिद्ध प्रभु जड़ चैतन्यादि तत्वों का लक्ष्यपूर्वक पार्थक्व नहीं करते । अतः तत्वार्थ श्रद्धात्मक सम्यक्त्व भी सिद्ध स्थिति में उतनी सष्टता के साथ प्रतिमा सित नहीं होती है । अतः आचार्यों ने एक अन्तिम व्याख्या और दी है:-खात्मोपलब्धि रूप सम्यक्त्व । आत्मा का शुद्ध खरूप ही सम्यक्त्व है और वह सम्यक्त्व सिद्धात्माओं में भी स्पष्ट रूप से प्रतिभासित है ।
__इसिमासियाई सूत्र में महाकाश्यप अंइतार्थ सम्यक्त्व और ज्ञान की उपादयता बताते हुए कहते हैं-जैसे अमि और पवन के प्रयोग से स्वर्ण विशुद्ध हो जाता है वैसे ही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के द्वारा युक्त आत्मा पाए से विशुद्ध होता है।
सम्यग्दर्शन की उपादेयता जैनदर्शन में ही नहीं अजैन दर्शनों में भी स्वीकार की गई है। हिन्दु धर्म के सामाजिक विधि नियमों के प्रणेता महर्षिमनु मनुस्मृति में सम्यग्दर्शन के सम्बन्ध में लिखते हैं :
सम्यग्दर्शन से सम्पन्न आत्मा कर्म से बद्ध नहीं होता है और दर्शन से विरहित आत्मा संसार को प्राप्त करता है।
सम्यग्दर्शन आत्मदर्शन का वह प्रकाश है जिसके प्राप्त होने पर आत्मा स्व और पर का त्रिवेक करता है । विचार-जगत् में वह खुले दिमाग के साथ प्रवेश करता है। उसके लिये अन्य दर्शन भी स्वदर्शन है। जो हंस बुद्धि को लेकर चलता है उसके लिये सर्वत्र दूध है, क्योंकि पानी को उसकी चंचु दूर कर देती है ।
१. जीवादि सदहर्ण समत्तत्वमापणो संतु।
दुरभिणिवेस मुक्कं गाणं खु होदि रादि जम्हि ।।- द्रव्यसंग्रह गर. ४१
तमेव सच्च निसकं जंजिणेहिं पवेश्य। -भगवती मत्र. ३. सम्यग्दृष्टानं सम्यग्ज्ञान मिति नियमाः सिद्धम् ।
आद्यत्रयशानमज्ञानमपि भवति मिथ्यात्वसंयुतम् ॥ वाचकमुख्य उमावाति प्रशमरति प्रकरण।
मति श्रुतावधयो विपर्ययश्च ।। -तत्वार्थ अ. १ ४. सम्मं च मोक्खत्रीय तंपुष भुयस्थसहहणावं ।
पसमाइ-लिंग-गम्म महायपरिणाम रूपे तु। - आ. देवगुप्त - नवतत्व प्रकरण. ५. इसिभासियाई अ. ६।२६
सम्यग्दर्शनसम्पनः कर्मभिर्न निबध्यते । दर्शनेन विहीनस्तु संसारं प्रतिपद्यते ॥ - मनुस्मृति अ. ६