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"इलिभासियाई" सूत्रपरिचय भाध्यकार जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण विशेषावश्यक भाष्य में लिखते हैं-पर समय ( सिद्धान्त) और स्वसमय दोनों ही सम्यग्दृष्टि आत्मा के लिन्य स्व समय ही है | जो मिय्यामतों का समूह सम्यक्त्व में उपकारी है वहा परसिद्धान्त भी सम्यक्त्त्री के लिये व समय है।
इस प्रकार हम देखते हैं । भारतीय दर्शन की तीनों धाराओं के विचार सूत्रों में बहुत कुछ साम्य है। उनके दार्शनिक तथ्य कहीं साम्य रखते हैं तो एक स्थान पर जाकर अलग भी हो जाते हैं। यहां उनके साम्य वैषम्य का आंशिक दिग्दर्शन कराया गया है।
___ऋषिभाषितपत्र की भाषा इसिभासियाई मूत्र की रचना पद्धति "त" श्रुति प्रधान है। संस्कृत तथा' शब्द का प्राकृत में तहारूप होता है । किन्तु जिस प्राकृत पर शौरसेनी और पैशाची की छाया है उसमें हकार श्रुति के स्थान पर तवर्ग की श्रुति आती है । संस्कृत तथा' को वे 'तधा' बोलेंगे ।
प्राकृत शब्द उन तमाम प्राचीन भाषाओं के लिये प्रयुक्त होता है जो जन साधारण में संस्कृत के स्थान पर योली जाती थी । हा प्रान्त की अपनी भाषा थी और उनमें थोड़ा कुछ अन्तर अवश्य था । आज के प्राकृत साहित्य में जो विमेद दृष्टिगोचर होता है, उसमें प्रान्तीय भाषाओं की छाया है। शैलिमेद् प्रान्तीय भेद पर आधारित है। महाराष्ट्र में बोली जानेवाली आर्ष माषा महाराष्ट्रीय प्राकृत थी, तो आगरा के आसपास में बोली जानेवाली प्राकृत शौरसेनी कहलाती थी । स्थल की दूरी ने भाषा में बहुत बड़ा विमेद खड़ा कर दिया है और यह स्वाभाविक भी है। प्राकृत में यधपि सबका समावेश हो जाता है। फिर भी उनकी प्रकृति में अन्तर अवश्य है।
मूल आगम में जिस प्राकृत का व्यवहार हुआ है उसमें मागधी भाषा का प्राधान्य है । इसीलिये उसे अर्धमागधी कहा जाता है और अधमागधी की व्याख्या ही यह है कि जिसमें मगध प्रान्त और उसके निकटवर्ती प्रान्तीय भाषाओं के शब्दों का समावेश हो । खयं मागधी और अर्थ मागधी में भी कुछ अन्तर है ।
जिस सूत्र की रचना जिस प्रान्तीय भाषा विशेष में हुई है उसकी रचना पद्धति में तत् तत् प्रान्तीय भाषा का बहुत कुछ हाचं रहा है। इसीलिये आचारांग सूत्र की भाषा में गठन जो सुदृढ़ता है और अर्थगांभीर्य है हर उत्तरवती सूत्र कृतांग आदि आगमों में नहीं पाया जाता है।
श्रुत परम्परा के अनुसार समस्त आगमों के अर्थ-प्रणेता भगवान महावीर हैं और उनकी शब्द-रचना गणधर देव करते हैं । विशेषावश्यक भाष्य में आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण इसके लिये सुन्दर रूपक देते हैं
तप नियम और ज्ञान रूप वृक्ष पर आरुद अनंत ज्ञानी केवटी प्रभु भव्यात्माओं के बोध के लिये ज्ञानरूप फूलों की वृष्टि करते हैं। गणधरदेव उन ज्ञान युष्पों को बुद्धिरूप पट में ग्रहण करके तीर्थकर माषित वाणी को प्रबचन रूप में अथित करते हैं। वर्तमान द्वादशांगी की शब्द रचना आचार्य सुधर्म द्वारा हुई है । किन्तु
१. परसमओ उभयं व सम्मदिद्रिस्स ससमओ जे पं ।
तो सबज्यणाई ससमयवतम् निययाई॥ मिच्छतमयसमूह समन जं च तदुवगारम्मि । वहद पर सिद्धूतो तो तस्स तओ ससिद्धतो।। -विशेषावश्यक भाष्य ६५३-५४
अस्थं भाराह अरहा गन्य गुन्थन्ति गणहरा णिउणा॥ ३. तब नियम माण स्व आरूदो केवली अमियनाणी।
तो मुयइ नाणबुद्धि भविय जण विबोहणलाए । तं बुद्धिमएण पढेण गणहरा गिहिउण निरवसेर्स । तिस्थयर भासियाई गंधन्ति तओ पवयणट्टा ॥
" -विशेषाघदयक भाष्य ( नियुक्ति ) १०९४-९५