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इसि-भासियाई कुछकाल तक श्रुत परम्परा के द्वारा यह द्वादशांकी मौखिक रूप में रही। लिपिबद्ध न होने से विभिन्न प्रान्तों में बिचरनेवाले आचार्यों की प्रान्तीय भाषा के उच्चारण :१६ रूप से प्रवेश क म चादेवगिगि क्षमा श्रमण के नेतृत्व में आगम पुस्तकारूढ़ हुए तब यह उच्चारण भेद स्पष्ट हुआ। कहीं उच्चारणभेद के साथ शब्दभेद और अर्थभेद कमी सामने आया। किंतु उस समय उच्चारणभेद को उपेक्षित कर दिया और शब्दभेद और अर्थभेद को पाठान्तर के रूप में स्थान दिया गया । 'वितिय' विइय' में उसारण भेद है, 'दुइज' में शब्द भेद है। किन्तु पाठान्तर में कहीं शब्दभेद रहता है तो कहीं थोड़ा अर्थभेद भी आ जाता है।
वल्लभी वाचना के समय जब बहुश्रुत मुनि एकत्रित हुए और समवेत आगम बाचना हुई तब विभिन्न आचार्यों के मुंह से विविध पाठ सामने आये । आचार्य देवर्द्धि गणि क्षमाश्रमण ने आगम के हार्द को परखते हुए बहुमत के आधार पर मूल पाठ तैयार किया और शेष को पाठान्तर के रूप में पृथक् स्थान दे दिया गया। आगम सम्पादन के गुरुतर कार्य को काफी विचार पूर्वक करने पर भी कहीं कहीं स्खलना रद्द गई। जैसे कि अन्तकृतांग सूत्र के तृतीय वर्ग के प्रथम छ: अध्यायों में नाग गाभाति के अनियसेन आदि छ कुमारों का विवाह चारित्र और निर्वाण प्राप्ति का निरूपण है। उनकी निर्वाण की कहानी समाप्त हो जाने के बाद तप और त्याग के उज्जवल नक्षत्र गजसुकुमार की कहानी प्रारंभ होती है और महारानी देवकी के प्रासाद में दो दो के रूप में छः मुनि प्रवेश करते हैं।
ये छः मुनि कौन से हैं। प्रभु नेमिनाथ समाधान देते हुए महारानी देवकी से कहते हैं “ ये तेरे ही पुत्र है" किन्तु हरणग़मेषी के द्वारा सुलेसा को प्राप्त हुए है।
निर्वाण प्राप्त मुनियों का फिर से जीवित होकर भिक्षा के लिये जाना अटपटा-सा लगता है । इतना ही नहीं, कहानी की सामायिकता समाप्त हो जाती है। अच्छा तो यह रहता कि उनका निर्वाण भी गजब दिखाया जाता।
हां, तो आचार्य देवर्द्धिगणि ने पाठान्तरों को भी आदर का स्थान दिया । पाठान्तरकारों में आचार्य नागार्जुन का स्थान महत्व पूर्ण है। नंदीसूत्र के वृत्तिकार आचार्य हरिभद्र सूरि स्थविरायलि की व्याख्या करते हुए कहते हैं अब मैं श्री हिमवन्त आचार्य की स्तुति करता हूं। जिनके शिष्य श्री नागार्जुन नामक आचार्य हैं | आचारांग, सूयगडांग, उत्तराध्ययन आदि सूत्रों में पाठान्तर रूप पाठ उनके हैं । वे कालिक श्रुत की व्याख्या के पूर्णतः ज्ञाता थे और बहुत से पूों के पाठी थे। अतः उनके पाठ प्रामाणिक माने गये हैं। - आगमों का गहराई से अध्ययन करें तो ज्ञात होगा कि पाठान्तरों का महत्वपूर्ण स्थान है और पाठान्तर को सामने रखकर आगम की व्याख्या की जाय तो मैं समझता हूं काफी नये रहस्य ज्ञात हो सकेंगे। आज का ध्याख्याकार मूल पाठ को महत्व देकर उसी की व्याख्या करता है और पाठान्तरों को फुट नोट में देकर आगे चल पड़ता है। किन्तु पाठान्तरों की व्याख्या की भी आवश्यकता है। क्योंकि पाठान्तर मया अर्थ रखता है और उसके द्वारा सम्पूर्ण गाथा से नया अर्थ प्रस्फुटित होता है।
पाठ भेद के साथ उच्चारण भेद को भी महत्व देना चाहिए | कई प्रतियों में त' श्रुति की प्रधानता है तो कई प्रतियों में 'ग' श्रुति की। सूत्र के लिये कहीं 'सुत्त' शब्द का प्रयोग हुआ है तो कहीं 'सुय' । कहीं च
१. अन्तकृतांग सूत्र तृतीयवर्ग अ० सू. ७
कालिय सुय अणुजोगस धारए धारए य पुरवाण । हिमवन्त समासमणे बन्दे णागजणायरिये ।। मिउ-महव-सम्पने अणुपुलिं वायगसणं पत्ते । मोह-सुय-समायारे जागाजुण वायएवन्दे ॥ - श्री नंदीसूत्र स्त्रविरावलि गा. ३९