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इसि-भासियाई जैन दर्शन मोक्ष को भौतिक सुख दुःख से परे मानता है, पर आत्मा की स्वरूप स्थिति में एक सात्विक आनंद है उसमें इन्कार नहीं किया जा सकता।
टीका:-न चिकित्सति कुवैथो यदि वा न चिकित्स्यसे कुवोन दुःख सुख वा पाहेत हेतुविशेषं विभज्य, किन्तु सामान्यचिकित्सिते वैवशास्त्रे सुयुक्तस्य कोधिदस्य दुःखसुखे भवतः सुज्ञाते । एवमेव मोहक्षयेऽर्थेऽप्रज्ञानमार्गे मुकस्य मे सुशाते नश्वयुक्तस्य हेतुविशेषणेऽनयोः श्लोकयोरां ग्रहीतुमम्मत्प्रयत्रः।
अर्थात् टीकाकार का मत कुछ मिल पाता है। कुय योग्य चिकित्सा नहीं करता। अर्थात् जैसे अनाड़ी वैद्य रोगी के दुःखदर्द को न जानकर रोग की ठीक चिकित्सा नहीं करता है। किन्तु आयुर्वेद का ज्ञाता निषण वैद्य रोगी के सुख को समझकर योग्य चिकित्सा करता है । इसी प्रकार मोह क्षय में अर्थात् ज्ञान मार्ग में प्रवृत्त व्यक्ति आत्मा सुख दुःख को जानता है। किन्तु आरम-खभाव को न जाननेवाला व्यक्ति सुख और दुःख के सही रूप को भी जान नहीं सकता।
तुच्छे जणमि संवेगो निवेदो उत्तमे जणे।
अस्थि तादीण भाषाणं विसेसो उवदेसणं ॥ १०॥ अर्थ :-तुच्छ मनुष्यों में संवेग रहता है और उसमें मनुष्य में निर्वेध रहता है । दीन भात्रों के अस्तित्व में विशेष रूप किया जाता है। गुजराती भाषान्तर :
હીન મનુષ્યમાં સંવેગ (મેક્ષ પ્રાપ્તિ માટે ઈચ્છા હોય છે, અને ઉચ્ચ માનવોમાં નિર્વેદ (વિષયોમાં આસક્તિ) હોય છે. દીનબાના અસ્તિત્વમાં છે વિશેષરૂપથી) ખાસ ઉપદેશ આપવામાં આવે છે, ___आत्मा का मोक्षाभिमुख प्रयत्न संवेग है। अनंत अनंत युग से आत्मा गति कर रहा है। भौतिक पदार्थों के पीछे दोच रहा है। किन्तु इसका वेग विषम है। उसके प्रयत्न उसे दुःख की और ही ले जाती है। किन्तु जब वह खात्मोपलब्धि के लिये प्रयत्न करता है वही उसका संवेग है। विषयों के प्रति अनामुक्ति निर्वेद है। आचार्य सिद्धसेन सवंग और निवेद की व्याख्या करते लिखते हैं-नरकादि गतियों को ( उनके दुःखों को) देखकर मन में एक भय पैदा होता है। बह संवेग है और विषयों में अनासक्तिभाव निद है।
प्रस्तुत व्याख्या के अनुरूप यहां पर अहतर्षि बता रहे है कि तुच्छ जनों निर्धन प्राणियों में संवेग प्रमुख रहा है। क्योंकि उन्हें यह भय रहता है कि कहीं बुमति में चला नहीं जाऊं पहले के अशुभ कमी के उदय से मैं साधन विहीन घर में आया हूं और यदि अब भी अशुभ कर्मों में लिप रहा तो दुर्गति का पथिक अनूंगा।
जो साधनसंपन हैं। लक्ष्मी के पायलों की झंकार के साथ जहां सुरा और सुन्दरियों की कीष्ठा होती है। किन्तु एक दिन उनके मन में उसके प्रति घृणा हो जाती है और वे कह उठते हैं इन मधुर गीतों में रुदन की ध्वनि आ रही है। समी नाटकों के पीछे विडम्बना को मेरी आंखें देख रही है । सभी अलंकार मेरे लिये भार रूप है और सभी सुख के साधन मुझे कांटे से चुभ रहे हैं और वह उनसे अलग हो निर्जन वन की शीतल शान्ति में आश्रम खोजता है।
यद्यपि संवेग और निवेद ऐसे नहीं हैं कि उन्हें गरीब और अमीर में विभक्त किया जा सके फिर भी बाहुल्य और परिस्थिति के प्राधान्य को लक्षित करके ऐसा कहा जाता है। साथ ही गरीबी के अस्तित्व में उपदेश विशेष दिया जाता है और उसका असर मी जल्दी होता है। क्योंकि वैराग्य की प्रसव भमि दुःख ही है। भीम ग्रीन में ही आम रसदार बनता है। दुःख के भीष्म ग्रीष्म में ही मानव में माधुर्य आना है। जब तक बांस तीखे चाकू के प्रहर को सह नहीं लेता तच तक उसमें से मधुर स्वर जहरी निकल नहीं सकनी । एक इंग्लिश विचारक बोलना है:
Is not the lule that scothes ylille spirit the very vuod tllat was hallowed with knives - खलील जिब्रान यह वासुरी जो दिल के दर्द को हर लेता क्या वही बरा का टुकहा नहीं है जिसमें चाकू से छेद किये गये थे?
१, संत्रेगो मोक्षामिलाघा. २. संवेगो नाकादिंगल्यवलोकनातू संगीतिनिर्देदो विषयेष्वनभिधम रति सिद्धसेनः ।