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अडतीसच अभ्ययम
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दुःखों के प्रहार सहकर ही मानव में मृदुता आती है और वही उपदेश को श्रवण कर सकता
टीका:- संवेगो नरकादिगत्यवलोकनात् संभीनिर्निवेो विषयेश्वनभिरंग इति सिद्धसेनः । तुच्छे निःसारे जने संवेग इत्युत्तमे तु निर्वेद इत्येतौ दीनानां जनानां भात्रों यदि वा दीनी च भवतो भावा चेति दीनभावो तयोर्विशेषस्तयो विशेषसमधिल तादुपेश शलोकानामध्या सविश्रारूपं विना नास्त्युपदेश इति भावः ।
अर्थः- संवेग निर्वेद की व्याख्या ऊपर आ चुकी है। शेषार्थ इस प्रकार है तुच्छ / निःसार मनुष्य में संवेग और उत्तम मनुष्यों में निर्वेद होता है। ये दोनों शीन मनुष्यों के भाव हैं, अथवा वे दोनों दीनभाव हैं उनकी विशेषता को लक्ष्य करके उपदेश दिया गया है। अध्यात्म विद्या-रूप ज्ञान के अभाव में उपदेश नहीं हो सकता ।
सामण्णे गीतणीमाणा विसेसे मम्मवेदिणी । सवण्णु-भासिया वाणी णाणावत्थोदयंतरे ॥ ११ ॥
अर्थः- सर्वेश भाषित वाणी नाना अवस्था और उदय ( कर्मोदय ) के भेद से सामान्य पुरुषों में गीत रूप बनकर रह जाती है; जबकि विशेष पुरुषों के मर्म को वेध देती है। अर्थात उनके हृदय को स्पर्श कर जाती है । अथवा नाना अवस्था और उदय के अन्तर से बीतराग की वाणी सामान्य होती हैं और विशेष में सर्म वैधिनी होती है।
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गुजराती भाषान्तर :
સર્વજ્ઞભાષિત વાણી અનેક અવસ્થા અને ઉદય (હૃદય) ના ભેદલી સામાન્ય મનુષ્યોમાં ગીતરૂપ અનીને રહે છે; જ્યારે વિશેષ માનવોના માન વધે છે. એટલે તેના હૃદયને સ્પર્શ કરી જાય છે. અગર અનેક અવસ્થા અને હૃદયના અંતરથી ભીતરની વાણી સામાન્ય પમાં થાય છે; અને વિશેષમાં મર્મવેધિની હોય છે,
पूर्व गाया में बताया है दीनावस्था में उपदेश का असर विशेष होता हैं। ऐसा क्यों होता है ? तीर्थंकर देव की वाणी समरूप से बहती है फिर परिणाम में अन्तर क्यों आता है ? उसी का उत्तर यहां दिया गया है। सर्वज्ञ देवों कि वाणी सब सुनते हैं, किन्तु जो केवल श्रवण का माधुर्य पाने के लिये पहुंचते हैं उनके लिये वह संगीत बनकर ही रह जाती है; किन्तु जो विशेष भूमिका पर पहुंच चुके हैं उनके लिये वह वेधिनी है । यही दो कारण है गजसुकुमार जैसे ने एक ही देशना सुनी थी, किन्तु आत्मा जागृति की वह लद्दर आई कि भोग और वासना के बन्धन तोड़कर वे चारित्र्य के पथ पर चल पड़े । वाणी का असर होने के लिये व्यक्ति की भूमिका और कमोदन भी कारणी भूत होता हैं। भूमिका शुद्ध है तो सामान्य से बीज और हलकी सी वर्षा भी काम कर जाएगी । भूमि ऊसर है तो न नीज काम कर सकते हैं, न वर्षा ही कुछ कर सकती है ।
उपादान शुद्ध हो, अन्तर की जागृति हो तथा वाणी के बीज प्रतिफलित हो सकते हैं । यही कारण हैं कि आज के बहुत से श्रोता प्रवचन सुनते हैं। उसमें भीगते भी हैं और प्रवचन हॉल से बाहर निकलते हैं तब बोल उठते हैं महाराज ने बहुत सुंदर कहा ऐसी बात कही कि श्रोता हिल उठे। किन्तु जीवन में परिवर्तन का प्रश्न आता है ast श्रोता एक कदम पीछे हट जाते हैं। प्रवचन प्रतिदिन सुनना मधुर कंठ से दिया गया प्रवचन उन्हें सुनना है। वह इसलिये कि कानों को प्रिय लगता है। इसका मतलब यह हुआ आज प्रवचन केवल कानों के लिये है, जीवन के लिये नहीं। दूसरे शब्दों में वह श्रवणेन्द्रिय का व्यसन मात्र रह चुका है।
प्रस्तुत गाथा की दूसरी व्याख्या के अनुसार जब तीर्थंकर देव देशना देते हैं जब उनकी देशना कभी सामान्य वस्तुतत्त्व का स्पर्श करती है तो कभी विशेष का विश्लेषण करती है । सामान्य और विशेष के दोनों तटों को छूकर ही देशना की धारा बहती है। वस्तु का केवल वस्तु रूप में परिचय सामान्य दर्शन कहलाता है और उसकी भीतरी विशेषताओं का परिचय दर्शन की भाषा में विशेष कहलाता है। भवन को भवन के रूप में देख लेना सामान्य दर्शन है पर उसके खंड उपखंड प्रकोष्ठ उनमें रही हुई वस्तुएं उसका स्वामी आदि का परिचय प्राप्त करना विशेष है ।
आचार्य सिद्धसेन दिवाकर भी कहते हैं
तीर्थंकर देवकी देशना संग्रह ( सामान्य ) और विस्तार ( विशेष ) के मूल को बतानेवाली है। संग्रह नव स्पर्शक देशना द्रव्यास्तिक नयों का उद्भव स्थल है तो विशेष वादक अंश पर्यायनयों की प्रसव भूमि है। शेष नय उन्हीं के विकल्प हैं' ।
१ तित्यथरवयणसंमपत्धारमूलबागरण । दव्वयि पज्जवणनाथ सेसापियप्यासि ।
----सन्मतिप्रकरण काण्ड १ कोक ३.