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तृतीय अध्ययन
केवल ऐपिथिक किया है। तत्वार्थसत्रकार प्रमत्त योग को ही हिंसा बताते हैं। प्रमत योग के हटते ही राग की बन्धक शक्ति समसार हो जाती है। दूसरा लेप बताते हैं :
परिम्गहं गिण्हते जो उ अप्पं वा जति वा बहुँ ।
गेही मुच्छायदोसेणं लिप्पते पावकम्मुणा ॥२॥ अर्थ:--जो साधक, अल्प या बहुत परिग्रह प्रण करता है, वह गृहस्थों में ममत्वशील होता है ? वही दोष उसे पापकर्मों में लिप्स करता है। के साथ अ५ मा परिने
मत रामेछ. ते हो (भभता) તેને પાપકર્મોમાં લપેટે છે.
आत्मा को कम से लिप्त करनेवाली दूसरी वृत्ति परिग्रह है। पदार्थ के प्रति ममत्व ही परिग्रह है। पदार्थों के प्रति की आसक्ति उसे गृहस्थों के परिचय के लिये प्रेरित करती है। वह उन्हें ममत्व के पाश में बांध कर उनसे धन संग्रह करता है। मैं और मेरापन ही सब से बड़ा पाप है।
कोहो जो उ उदीरेइ अप्पणो वा परस्स वा । सं निमित्ताणुबंधे लिप्पते पाषकम्मणा ॥३॥
एवं जाव मिच्छादसणसल्लेणं । अन्वयार्थ:-जो अपने या दूसरे के ( सुप्त) क्रोध को पुनः जगाता है, उस निमित्त के अनुबन्ध से आत्मा पाप कर्म से लिप्त होता है।
ऐसे ही मिथ्यादर्शनशल्य तक जो पापकर्म है बे आत्मा के लिये लेपवत् है।
જે પોતાના અથવા બીજાના (સુસ) ક્રોધને ફરીથી જગાવે છે, તે આત્મા તે નિમિત્તથી બંધાઈને પાપ કર્મમાં લિપ્ત થાય છે તે જ પ્રમાણે યાવત મિથ્થા દર્શન શય સુધી જે પાપકમો છે તે આત્મા માટે લેપવત (मा१२२० समान)छे.
बयतक काय पर सैपूर्ण विजय प्राप्त नहीं हुआ है, तब तक कमी कभी क्रोध का उदय हो आमा सबज है । आग लगाने पर फायर ब्रिगेट याद आता है, ऐसे क्रोध की ज्वाला सुलगने पर क्षमा के साधकों के स्मृति पथ में लायें और उनके शाम्त जीवन के भीतल कणों से क्रोध को उपशान्त करें। यह है क्रोधोपशमन की विधि किन्तु कषाय शील आत्मा कमी कमी इससे विपरीत आचरण करता है। वह क्रोध पैदा करनेवाली भूली बातों को फिरसे स्मरण करता है और सुप्त क्रोध को जागृत करता है। दूसरे को वैर याद दिलाकर उनके दिल की सोई आग को जगा देता है। इस प्रक्रिया से आत्मा अहर्निश कषाय में जल ही रहती है।
उहीर्णा जैन पारिभाषिक शब्द है। जो कर्म देर से उदय में आने वाले हों उन्हें विशेष प्रक्रियावारा शीघ्र उदय में ले आना उदीर्णा कहलाता है । ऐसे ही उपशमित क्रोध को फिर से जागृत करना भी उदीर्णा है ।
जिन प्रवृत्तियों से आत्मा अशुभ का बन्न करता है। वे पाप प्रवृत्तियाँ कहलाती हैं। उनकी संख्या अठारह है। जिनमें तीन यहाँ श्ता चुके हैं। शेष के नाम इस प्रकार हैं:-असल, स्तेय, मैथुन, परिप्रह, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, परपरिवाद, रति, अरति, माया-मृषा, मिध्यादर्शन । ये सभी आत्मा के लिये लेग रूप है।
पाणातिवातो लेबोलेवो अलियवयणं अदत्तं च ।
मेहुणगमणं लेवो लेवो परिग्गरं च ॥ ४॥ अर्थः-प्राणातिपात, लेप है असत्य, चोरी, कामवासना और परिग्रह भी लेप है। प्राशतिपात ५ (धन), असत्य, योरी, आमवासना भने परियल पा (धन) ५ छे.
१प्रमतयोगात् प्राणव्यपरोपगं हिंसा, तरवार्थ अ७-सू,८।
२म परिमहः तत्वार्भ, अ.७, सू. १२,