________________
इसि - भासियाई
पोपरत साधक का जीवन चित्र देते हुए आहितर्षि बोलते हैं :---
से भवति सव्वकामविरते, सव्चसंगातीते सव्वसिणेहतिक्कते संध्ववीरिय निष्कुडे सव्वकोहोवर त्ते सव्यमाणोवरत्ते । सञ्चमायोचरत्ते, सव्वलोभोवरत्ते, सव्वचासादाणीवरत्ते, सुसन्धसंबुडे, सुसवसध्वोवरते, सुसच्चसवोवरते, सुसध्वसव्वोवसंते, सुसच्चपरिबुडे, णो कत्थद संज्जति तम्हा सव्वलेषोवरम भविस्सामि त्ति कट्टु असिएणं दधिलेणं अरहता इसिणा बुझ्
१२
अर्थ : :- लेपोपरत आत्मा समस्त वासनाओं से विरक्त होता है। सर्व संग तथा सर्वे लेह से बिरक होता है। साथ ही यह समस्त (अशुभ) शक्ति से निवृत्त हो को मान माया और लोभ के समस्त प्रकारों से दूर रहता है। समस्त वासा दान-ग्रहण से उपरत हो श्रेष्ठ रूप में सभी ( सावध प्रवृत्तियों) से संवृत्त हो श्रेष्ठ रूप में सभी ( वासनाओं से, सर्वोपरत हो ) सभी स्थानों में ( अन्तर और बाह्य के ) सभी रूपों में (हता है। साथ ही सभी प्रकार से परिवृत व्याप्त हो (सभी के बीच रहता । फिर भी कहीं पर भी वह आगत नहीं होता। अतः मैं सभी लेपों से उपरत होऊंगा । इस प्रकार अति दविल अर्हतर्षि बोले :
-
કર્મરૂપ લેપથી રહિત આત્મા સમસ્ત વાસનાઓથી વિરક્ત હોય છે. સર્વ સંગ તથા સર્વ સ્નેહથી વિરક્ત હોય छे. साथै साधे ते समस्त (अशुभ) शतिथी निवृत्त अर्धने, ोध, मान, भाया ने बोलना समस्त अझरोश्री દૂર રહે છે. સમસ્ત વાસા દાન-વગ્રહણથી અલગ રહીને શ્રેષ્ઠ રૂપમાં બધી ( સાવદ્ય પ્રવૃત્તિઓ ) થી સંવૃત થઈને શ્રેષ્ઠ રૂપમાં બધી ( વાસનાઓથી ) દૂર રહીને અધે સ્થળે (અન્તર અને ખાદ્યના) સાથે સાથે તે બધી પ્રવૃત્તિઓથી ન્યાસ હોવા છતાં ( બધાની વચ્ચે રહે છે ), પણ તે નથી, તેથી હું સર્વ આવરણોથી દૂર રહીશ. ( ઉપરત થઈશ ) આ પ્રમાણે અસિત દવિલ
ધ
રૂપોમાં ઉત્તમ હોય છે, ક્યાંય પણ આસક્તિ પામતો અર્હતર્ષિં ખોલ્યા :——
लेपोपरत आत्मा की स्थिति इसमें बताई गई है। वह वासना और उसके निमित्त सभी से पृथक हो जाता है। इन्द्रियाँ और मन की समस्त प्रवृतियों को आश्रव से मोड़ कर उनका संवरण करता है। साथ ही वह जल और चैतन्य के सभी संग का त्याग कर निस्संग होता है। क्योंकि निस्संगता का अपर पर्याय मुक्ति हैं। निःसंग आत्मा फिर भले प्रासाद में रहे या उपवन में रहे, परिवार से वेष्टित रहे या अकेला विचरण करे। वह कहीं पर भी आसक्त नहीं होता। क्यों कि उसकी
आत्मा उपशान्त 1
1
दि. वासादाणः - बास के निवास अथवा व दोनों ही अर्थ हैं। अपेक्षा भेद से दोनों ही स्वीकृत हो सकते हैं। वास - निवास स्थान के आदान 'उपरत हो जाता अर्थात् उसे रहने के लिये प्रासादों की आवश्यकता नहीं है। अथवा वास वस्त्र के आदान की उसे आवश्यकता नहीं रहती । वह स्थविर कल्प से जिनकल्प को ग्रहण करता है । अतः उसे वस्त्र लेने की भी आवश्यकता नहीं है ।
लेप क्या है ? उसे बताते हुये भोलते हैं।
:
सुमेय बायरे वा पाणे जो तु विहिंसइ । रागदोसामिभूतप्पा लिप्यते पाचक्रम्णा ॥ १ ॥
अर्थः-- राग द्वेष से अभिभूत आत्मा सूक्ष्म या स्थूल किसी प्रकार की हिंसा करता है वह पाप कर्म से लिप्त होता है।
રાગ-દ્વેષથી લપટાયેલો આત્મા સૂક્ષ્મ કે
સ્થૂળ-કોઈ પણ પ્રકારની હિંસા કરે છે તે પાપ કર્મથી લિસ ોય છે. प्रस्तुत गाथा में कुछ प्रश्नों का समाधान दिया गया है। लेप क्या है और उसमें आत्मा लिप्स कैसे होता है । जय तक राग और द्वेष की परिणति है तब तक हिंसा रहेगी ही। इस से एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त निकल आता है। राग ही हिंसा का अनुबन्धक है । क्योंकि राग के हट जाने के बाद हिंसा का बन्ध नहीं होता। इसी लिये १० में गुणस्थान से ऊपर
I
१. सब्ववीरिय परिनिब्बुडे, २ रजति. निपात्यतेऽधः संगेन योगी किमुतास्पसिद्धिः ॥
1
निरसंगला मुक्तिपदं यतीनां संगादशेषाः प्रभवन्ति दोषाः आरूढयोगोऽपि ४ अर्धमागधीकोष पू. ३८२ शतावधानी रत्नचन्द्र जीम.
i
1