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________________ तृतीय अध्ययन. आत्मा का स्वभाव ऊर्ध्वगति करने का है फिर वह कभी निम्न और कभी तिर्यग् गति क्यों करता है? इस प्रश्न का समाधान ज्ञाता धर्मक्यांग सूत्र में किया गया है। तुं ने का स्वभाव है जल में तैरना किन्तु उसे धागों से बांध कर और मिट्टी के आठ लेप लगा कर पानी में डाला जाए सो वह नीचे बैठेगा। आत्मा भी लेप से आवेष्टित । इसी लिये तो नित्र और तिर्यग्गति करता , लेप क्या है और आत्मा लेप से उपरत कैसे हो सकता है प्रस्तुत अध्याय में इसी की चर्चा है। भदिवं खलु भो सव्वलेवोवर तेणं लेबोगलित्ता खलु भो जीवा अणेगजम्मजोणीभयावत्तं अणादीर्य अणवद दीह्मणं चातुरंतं संसारसागरं वातीकता संयमतुलमयलमव्याबाहमपुणष्भवमपुणरावतं सात ठाणमभुवगता चिर्हति । " अर्थ :- ( मुमुक्षु आत्मा को ) समस्त लेपों से उपरत होना चाहिये। लेपोपलिप्त आत्माएं अनेक जन्मन्योनियों से भयावृत अनादि अनवदत्र सुदीर्घकाल भाषी चातुरन्त संसार सागर को पार करके शिव अचल अतुल अग्यावाध पुनर्भव और पुनरागमन से रहित शाश्वत स्थान को प्राप्त कर देती हैं । (મુમુક્ષુ આત્માને ) અધા આવરણોથી દૂર રહેવું જોઈ એ. અનાવરણ આત્માઓ અનેક જન્મોથી ભયાવૃત અનાદિ અનવદગ, સુદીર્ઘકાલભાવી ચતુરન્ત સાગરને પાર ઉતરીને શિવ, અચલ, અતુલ, અવ્યાબાધ પુનર્જન્મ અને પુનરાગમનથી રહિત શાશ્વત સ્થાનને મોક્ષ ) પ્રાપ્ત કરી લે છે. देव साधक को लेपोपरत होने की प्रेरणा दे रहे हैं। साथ ही डेपोपलिप्त आत्मा की शुद्ध स्थिति भी बताई गई है ( जो कि विश्वारणीय है ।) आत्मा की विभाव परिणति उसका भाव लेप है और उसके द्वारा आकर्षित कर्म द्रव्यलेप है। दोनों लेपों से उपरत आत्मा स्वभाव में उपस्थित हो सकती | प्रारंभ के छः विशेषण संसार की भयानकता व्यक करते हैं। जो कि औपपातिक सूत्र में वर्णित संसार स्वभाव के चित्रण से मिलते जुलते हैं। अन्तिम सात विशेषण स्वभाव में स्थित आस्मा के हैं। ठाणं शब्द ऐसे तो सिद्ध शिला के लिये प्रयुक्त होता है, किन्तु ये समस्त विशेषण सिद्ध शिला के लिये प्रयुक्त नहीं हो सकते । क्योंकि सिशिलागत जीवों में पुनर्भव भी है और पुनरावृति की है। किन्तु सिद्धारमा में इसका अभाव है । अतः स्थूल रूप में ये विशेषण सिद्धस्थान को लागू हों, किन्तु वस्तुतः ये सिद्ध प्रभु के ही विशेषण हैं। शक्रस्तव में भी यह विशेषणावली मिलती है। किन्तु प्रस्तुत पाठ में अपुणभव विशेषण विशेष है। वहाँ 'अक्षय' जिसका अर्थ है अरुज रोगाभाव जब कि यहाँ अतुल शब्द है जो कि अतुलित के अर्थ में हैं। अनंत अक्खय विशेषण शक्रस्तव में विशेष हैं । पाठ कुछ लिष्ट विशेषण के अर्थ इस प्रकार है : अणवद्ग्ग - अनवदप्र - अनंत छोररहित । अन्याबाध-व्याबाधा रहित. अपुनर्भव- जहाँ जाने के बाद भवपरंपरा समाप्त हो जाती है । टीकाकार बोलते हैं: - लेपः कर्म पापो वा, भवितव्यं खलु सर्वलेपोपरतेन । लेपोपलिताः खलु भो जीवाः अन दीर्घाध्वानं चातुरंत संसारसागरं अनुपरिवर्तन्त इत्यादि अनेकशब्दा लुताः । "लेपोपरतास्तु संसारं व्यतिक्रांता जीवा शिवेत्यादि विशिष्टं स्थानं अभ्युपगता स्तिष्ठन्ति ।" अर्थात् संसार के कुछ विशेषण लुप्त हो चुके हैं। शेष का अभी ऊपर आ चुका है। टिप्पणी:- प्रो. शुनिंग लिखते हैं:-"किसी भी प्रकार का अपराध ( प ) आत्मापर धब्बा लगाता है । अतः उससे दूर रहना चाहिये । यहाँ तक तो ठीक है, किन्तु आगे बताया गया है, दागलगा हुआ आत्मा (लेपोपलिप्त ) दुनिया को जीतता है। यह विरोधाभास है।" वास्तव में ये समस्त विशेषण लेप से उपरत आत्मा को लागू होते हैं। टीकाकार ने भी इस ओर ध्यान आकृष्ट किया है । अतः लेवोन लिना के स्थान पर लेवोवरता पाठ होना चाहिये। अथवा नवम अध्याय की भाँति बताना चाहिये था कि लेपोपलिप्त आत्मा अनादि अनंत संसार में परिभ्रमण करता है और लेपोपरत आत्मा संसार का अन्त करता है 1
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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