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इसि-भासियाई
आत्मा-शान चेतनामय है। कोई भी पदार्थ उसके सामने आते हैं तो वह देखता भी है। देखना कोई अन्धका कारण मी नहीं है। क्योंकि ज्ञाता और दृटा रूप आरमा का अपना स्वभाव है। आत्मा न देखेगा तो क्या पत्थर देखेगा ? ज्ञान-चेतना पाप की हेतु नहीं हुआ करती। पाप हेतुक तो है राग चेतना । किसी उद्यान में गये महकते फूल देखे यहाँ तक तो ठीक है, किन्तु देखने के साथ बोल पडे कितने अच्छे है। "अच्छे हैं" कहने के साथ ही राग चेतना आगई। मन बोल पडा-"अच्छे हैं तो लेलो।" यहीं राग चेतना वासना में परिणत हो गई। किन्तु सोचा माली आजाए तो पैसे देकर लेले, यहाँ तक वासना नीति की सीमा रेखा में है, किन्तु देखा माली न जाने कब आये और क्यों पैसे खर्च किये जाएं. ऐसे ही ले लिये जाएं। यहाँ वासना नीति की सीमा लांघ गई । मन में वासना धुखी; हाथ आगे छठे और कुछ फूल लेकर चलना चाहते थे कि मन बोल पड़ा थोडे पुत्र के लिये भी ले चलें। यहाँ वासना लोम में रंग गई। तमी माली ने हाय पकड़ा और चोरी के अपराध में पकड़ा गया। यही दुःख है । जहाँ मोह है वहां दुःख अवश्यंभावी है। दुः सूजर वार कर रहे होलान करना होगा :
दुःखमूलं च संसारे अण्णाणेण समजिते । भिगारिव्य सरूप्पत्ती हण कम्माणि मूलतो ॥ ८॥ पयंसे सिजे बजे विरते विपाचे मते उरिप अलंताती। जो पुणरवि इयत्थं हव्यमागच्छति-ति बेसि ॥ ९॥
इह विदयं पजियपुत्तज्झयर्ण ॥ अर्थ:-इस दुःख मूलक संसार में (आस्मा) अशान के द्वारा इचा हुआ है। जैसे सिंह माण के उत्पत्ति स्थल को देखता है ऐसे-तूं खोत्पत्ति के कारणभूत कर्मों के समूल नष्ट कर । ऐसा सिद्धबुद्ध आत्मा संसार में पुनः नहीं आता। गुजराती भाषान्तरः
આ દુઃખી સંસારમાં (આત્મા) અજ્ઞાનને લીધે ડૂબેલો છે. જેવી રીતે સિંહ બાણનું ઉત્પત્તિ સ્થાન જૂએ છે તેજ પ્રમાણે તું કમે, કે જે દુ:ખો ઉત્પન્ન કરવામાં કારણભૂત છે તેને સંપૂર્ણ નાશ કરે. સિહબુદ્ધ આત્મા સંસારમાં ફરીથી આવતો નથી.
संसार दुःखमूलक है तो फिर आत्मा इसमें क्यों पड़ा हुआ है और दुःखनाश का उपाय क्या है इन दो विषयों की चर्चा इस गाथा में की गई है।
कडुवे नीम के पत्ते भी विषप्रस्त मानव को मीटे लगते हैं। आत्मा को दुनिया के दुःखभरे तत्त्वों में सुख का आभास होता है। यदि गाय की आंखों पर हरा चश्मा लगा दिया जाय तो उसे सूखी घास मी हरी दिखाई देगी। यही तो अज्ञान है और तुःख में सुख की अभिनिवेशास्मक बुद्धि ही संसार-संसृति का मूल हेतु है । इसी पाश में बंधकर आत्मा संसार का मोह डोट नहीं सकता। साधक को की नहीं, सिंह की वृत्ति अपनाए । कुत्ता पत्थर को काटने दौडता है किन्तु सिंह पर बाण खेडा गया तो वह बाण के उद्गम स्थल को ही अपने वार का लक्ष्य बनाता है। इसी प्रकार साधक दुःख को नष्ट करने के लिये दुःख के मूलहेतु कर्म को ही समूल नष्ट करथे ऐसे तो आत्मा कर्मों को प्रतिक्षण नष्ट कर रहा है, किन्तु वह उसकी जड़ को समाप्त नहीं करता। कर्मबन्ध के मूल हेतु राग और द्वेष को समाप्त कर के ही आत्मा कर्म और उसके फल दुःख को समाप्त कर सकता है।
॥ इति द्वितीय अध्ययन समाप्त ॥
१दुवं इये जस्स न होई मोहो । उत्तरा. अ. ३२१७,
२ विशेष देखिये । प्रथम अध्याय का अन्तिम गद्यांश ।