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द्वितीय अध्ययन
आत्म के परिभ्रमण के मूल हेतु कर्म है। यह स्वीकार लेनेके बाद कर्मवादियों के सामने दूसरा प्रश्न उपस्थित होता हैकर्म पहले या आत्मा ? यदि आत्मा पहले था तो उस कर्मरहित आत्मा ने कर्म क्यों ग्रहण किये ? और यदि कर्म पहले ये तो दूर पडे कर्म आत्मा से क्यों और कैसे चिपक गये ? इसी प्रश्न का समाधान निम्न दो गाथाओं में दिया गया है
या अंकुरण फक्त अंकुशतो पुणो वीयं । atr संयुज्झमाणम्मि अंकुरस्सेध संपदा ॥ ४ ॥ बीभूताणि कम्माणि संसारस्मि अणादिए । मोहमोहितचित्तस्स ततो कम्माण संतति ॥ ५ ॥
अर्थः- भीज से अंकुर फूटता है, और अंकुरों में से बीज निकलते हैं। बीजों के संयोग से अंकुरों की संपत्ति बढती है। अनादि संसार में कर्म बीजवत् हैं। मोह-मोहित चित्तवाले के लिये उन चीजों से कर्मसंतति आगे बढती है । गुजराती भाषान्तरे:
શ્રીજમાંથી અંકુર ફૂટે છે અને અંકુરમાંથી બીજ નીકળે છે. બીજોનાં સંયોગથી અઝુરીની સંપત્તિ વધે છે. અનાદિ સંસારમાં કર્મ બીજ સમાન છે. મોહથી મોહિત થાય તેવા ચિત્તવાળા માટે તે એથી કર્મ સંતતિ આગળ વધે છે.
बीज में विराट वृक्ष समाया हुवा है। अनुकूल वातावरण पाकर बीज एक दिन विशाल वृक्ष बनता है जो कि अपने में हजारों नये चीज छिपाये रहता है। वज्जियत अर्द्धतर्षिने कर्म को भी नन्हें बीजों से उपमित किया है। अल्प रूप में आये हुए कर्म भी अपने में अनंत संसार लिये आते हैं। भाव-कर्म से द्रव्य कर्म के दलिक एकत्रित होते और द्रव्य कर्म पुनः भाव कर्मों को स्पंदित करते हैं। आस्मा के रामन कर्म और कहै । भाव कर्म से प्रेरित हो आत्मा द्रव्य कर्म को अपनी ओर आकर्षित करता है। वे ही कर्म जब विपाक रूप में उदय में आते हैं तो किसी निर्मित का आश्रय लेकर ही आते हैं। अज्ञानी आत्मा उस निमित्त को ही सब कुछ मानकर उसी पर अपना रोष ठेलता है। इसलिये वह उदयगत कमों को क्षय कर करने के साथ राग द्वेष की परिणति के द्वारा अनंत अनंत कर्मों को उसी क्षण बांध मी बेला है। यही है बीज और वृक्ष की कार्यकारण परंपरा और उसकी उपमा का रहस्य । इसी कार्यकारण परंपरा से बंधकर आत्मा और कर्म दोनों घिरोद्धखभावी होनेपर भी अनादि के सह-यात्री हैं।
कर्म - विमुक्ति के लिये साधक क्या करे यही बता रहे हैं
मूलसेके फलुप्पत्ती मूलघाते हतं फलं ।
फलत्थी सिंचते मूलं फळघाती न त्रिति ॥ ६ ॥
अर्थ :- जड़ का सिंचन करने पर फल पैदा होगा और मूल के नष्ट हो जाने पर फल स्वतः नष्ट हो जाएगा । फलार्थी जब को सींचता है, फलन चाहने वाला मूल का सींचन नहीं करता ।
गुजराती भाषान्तरः
જડનું સિંચન કરવાથી ફળ ઉત્પન્ન થશે. અતે મૂળના નાશથી ફળ તરતજ નાશ પામશે, ફલાર્થી જડનું સિંચન કરે છે. ફળ ન ચાહનારા મૂળનું સિંચન કરતા નથી.
वासना की विष- बेल के सुख और दुःख से दो फल हैं। यदि जड को सींचन मिलता गया तो फल फूटते रहेंगे । फल को नष्ट करना है तो उसकी जड़ को समाप्त करना होगा ।
मोहमूलमनिधाणं संसारे सध्वदेहिणं ।
मोहमूलाणि दुक्खाणि मोहमूलं च जम्मणं ॥ ७ ॥
अर्थ :- संसार के समस्त प्राणियों के अनिर्वाण- अशान्ति और परिभ्रमण का मूल मोह है । समस्त दुःखों की जब में मोह काम कर रहा है और जन्म का मूल भी मोह ही है ।
गुजराती भाषान्तरः
સંસારના સમસ્ત પ્રાણીઓના અનિર્વાણ-અશાન્તિ અને પરિભ્રમણનું મૂળ મોહ છે. સમસ્ત દુઃખોનાં જડમાં (મૂળમાં ) મોહ કામ કરી રહ્યો છે અને જન્મનું મૂળ પણ મોહ જ છે,