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________________ १३० इसि-भासियाई अर्थ :-दान, मान, उपचार, साम और मेद आदि क्रियाएँ तो क्या तीनों लोक की शक्ति मिल कर भी अनित्यता को रोकने में सक्षम नहीं हैं। गुजराती भाषान्तर: દાન, માન, ઉપચાર, સામ અને ભેદ આદિ ક્રિયાઓ તે શું ત્રણે લોકની શક્તિ ભેગી થઈ જાય તો પણ - અનિત્યતાને રોકવામાં સમર્થ થશે નહીં, विशालकाय बाँध जल की तीन धारा को रोक सकते हैं 1 किन्तु दुनिया में आज तक कोई भी ऐसा बांध नहीं बनाया जा सका है जो समय की धारा को रोक सके । पैसा देकर आप मान खरीद सकते हैं, मान देकर उपकार कर सकते हैं। किन्तु समय शक्ति और सम्मान देकर भी आप समय को नहीं खरीद सकते 1 । साम और भेद की नीति विध के नक्शे को बदल सकती है, किन्तु अनित्यता के नक्शे को बदल देने की ताकत उनमें भी नहीं है। क्योंकि समय देकर आप पैसा पा सकते हैं, किन्तु पैसा देकर आप समय नहीं पा सकते। ' उच्छ वा जति था णीय, देहिणं वा णमस्सितं । जागरतं पमत्तं वा, सव्वत्था णाभिलुप्पति ॥ १३ ॥ अर्थ :-उच्च हो या नीच जागृत, हो या प्रमत्त अनियता सर्वत्र सबको समाप्त करती है । गुजराती भाषान्तर: ઉચ્ચ હોય કે નીચ, સાવધાન અથવા મોહ પામેલ હોચ અનિયતા સર્વત્ર બધાનો નાશ કરે છે. आरा लकढीको काटता है, किन्तु उसके विषय में एक सिद्धान्त र आराया है तब कारता है, आता है तब नहीं, किन्तु मानव के हर श्वास और प्रश्वास उसकी आयु काटते ही जाते हैं। प्रतिक्षण मानव की आयु कम हो रही है चाहे प्रमत्त हो अथवा अप्रमत्त, अनित्यता सब पर होती है । "एवमेतं करिस्लामि, ततो एवं भविस्सती" | संकप्पो देहिणं जो य, णं तं कालो पडिच्छती ॥ २४ ॥ अर्थ:-"मैं यह इस प्रकार करूंगा, उससे यह होगा"। मनुध्य के मन में इस प्रकार के अनेकों संकल्प चलते रहते हैं । किन्तु कराल काल उसके संकल्पों को स्वीकार नहीं करता है। गुजराती भाषान्तर: હું આ રીતે કરીશ, તેથી આ થશે”, એ પ્રકારના અનંત સંકલ્પ મનુષ્યના મનમાં ચાલ્યા જ કરે છે. પણ ભયાનક કાળ તેના અરમાનેને જરા પણ વિચાર કરતો નથી. मानव के मन में नए नए संकल्प पैदा होते रहते हैं। यह कार्य यदि इस ढंग से किया जाय तो इससे यह होगा । यह करेंगे फिर यह करेंगे किन्तु काल मानव के इन संकल्पों को उसी प्रकार से विध्वंस कर देता है जिस प्रकार से उत्तरी इवा उपवनों को नष्ट भ्रष्ट कर डालती है। भगवान् महावीर स्वामी मानव मन की इसी स्थिति का चिमण पावा-पुरी के अन्तिम प्रवचन में देते हैं इमं च मे अस्थि इमं च स्थि, इमं मे क्रिश्चं इममकिय। तं एवमेव लालप्पमाणं, हरा हरंति ति कहं एमाए ॥-उत्तरा. अ. १४ गाथा १५ । इतना मुझे प्राप्त है और इतना मुझे और प्राप्त करना है, यह मैं कर चुका हूं और इतना करना शेष रह गया है । ये ही वे विकल्प है-जो मानव को मोह पाश में बांधे रहते हैं, पर अनित्यता उसके रंगीन स्वप्नों को चूर चूर कर देती है। जा जया सहजा जा बा, सधस्थधाऽणुगामिणी।। छाय व्च देहिणो गूढा, सध्यमाणेतिऽणिवता ॥ १५॥ अर्थ:-प्राणी कहीं भी जाए अनित्यता छाया की भांति सर्वत्र साथ रहती है। छाया पृथक् परिलक्षित भी हो सकती है। किन्तु यह अनित्यता तो कभी दिखाई भी नहीं पड़ती है। . .
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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