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________________ चौबीसवां अध्ययन १२९ अनित्यता सर्वत्र समान रूप से प्रहार करती है। निद्रा मद और प्रमाद जीवन को तीन कैंचियां जो कि नामच के गुणों को काटती रहती हैं। अनित्यता सब के लिए समान है। जो निद्रा की गोद में खुर्राटे भर रहे हैं, जो मदिरा के प्यालों में ही जीवन की वास्तविक मस्ती देख रहे हैं और जो वाराना की लहरों में बह रहे हैं उनके ऊपर मौत अहास है। सर और जीवन को विजय प्राप्त कर विजय सदैव अप्रमत्त का ही साथ देती है । देविंदा दाणविंदा य, परिंदा जे य विस्तुता । पुण्णकम्मोदयम्भूतं, पीर्ति पार्वति पीवरं ॥ ९ ॥ अर्थ :- देवेन्द्र, दानवेन्द्र और मानवेन्द्र पुण्य कर्म के उदय से जनता का प्रचुर प्रेम प्राप्त करते हैं । गुजराती भाषान्तर : દેવેન્દ્ર, દાનવેન્દ્ર અને માનવેન્દ્ર પુણ્ય કર્મના ઉદયધી જનતાનો પૂરો પ્રેમ પ્રાપ્ત કરે છે. देवेन्द्रों के रन सिंहासन और नरेन्द्रों के स्वर्णसिंहासनों पर बैठनेवाला अपने आप को कभी भी न भूले । शक्ति के भद में वह वह न बोल उठे कि मेरी तलवार ने सिंहासन को स्थिर रखा है। यदि उसको पुण्य तत्व पर विश्वास है तो वह कभी भी अहंकार की भाषा में बात नहीं करेगा पुण्य तत्व उसको मिथ्या अहंकार से दूर रखेगा और दूसरों के प्रति कोमल बनाएगा | आऊ धणं बलं रूवं, सोभागं सरलत्तणं । निरामयं च तं च दिसते विविहं जगे ॥ १० ॥ अर्थ :---आयु, धन, बल, रूप, सौभाग्य, सरलता और नीरोगता और प्रियता विश्व में विविध रूपों में दिखाई देती है । गुजराती भाषान्तर: आयुष्य, 'धन, मण, ३५, सौभाग्य, सरणता, तंदुरस्ती ने प्रियता विश्वमां विविध उपमां वामां आयेछे. आयु, धन, बल, सौभाग्य, सरलता, नीरोगता और लोकप्रियता ये सभी एक साथ एक ही स्थल पर प्राप्त नहीं हो सकते। किसी का जीवन लम्बा है तो उसके पास धन का अभाव है। कहीं बल है तो रूप का अभाव है। यदि सभी वस्तुएँ एक साथ ही मिल जायँ तो मानव कर्म जैसी वस्तु को मानने के लिए तैयार न होगा। जहां पर विशाल सम्पत्ति है वहां पर चार पैसे भी खर्च करने का दिल नहीं है और जिसका दिल उदार है, समाज के विकास के लिए जिसके पास उत्साह है, कार्य करने की क्षमता है, तो उसकी स्थिति इतनी गिरी हुई है कि उसके लिए अपना निर्वाह भी एक समस्या बन गई है। सदेवरगंधब्बे, सतिरिक्खे समाणुसे । शिव्या णिविसेसा, य जगे वसेय अणिश्चता ॥ ११ ॥ अर्थ:-सूट, गंध, तिथेच और मनुष्यष्टि इनमें अनिलता सर्वत्र समरूप से निर्भय हो कर घूमती है । गुजराती भाषान्तर : દેવÁષ્ટ, ગંધર્વ, તિર્યંચ અને મનુષ્યસૃષ્ટિમાં અનિત્યતા સર્વત્ર સમરૂપથી નિર્ભય બનીને ફરે છે. देवसृष्टि हो या दानवसृष्टि मानव जगत् हो या पशु-जगत् अनित्यता सर्वत्र निर्भय संचरण करती है। स्वर्ण- भवनों में रहने वाले यह सोचते हैं कि हम अमर हैं । किन्तु देव कुमारों का भी यौवन शाश्वत नहीं है । अमुक काल तक दिव्य भवनों में रहने के बाद एक दिन उन्को भी वहां से चल देना पडता है । पर्याय नय की दृष्टि से विश्व की कोई भी वस्तु शाश्वत नहीं है। वह प्रतिक्षण बदलती रहती है। अनित्यता की धुरी पर परिवर्तन का नर्तन चल रहा है। विश्व की कोई भी ताकत सृष्टि के इस नियम में परिवर्तन नहीं ला सकती है । एक सूक्ष्म अणु भी अपने पर्यायों में प्रतिक्षण परिवर्तित हो रहा है और विराट् गुमेह भी अपने पर्याय में परिवर्तित हो रहा है। वाणमाणोवयारेहिं साममेयक्कियादि य । ण सक्का संणिवा रेड, तेलोक्केणाविऽणिश्वता ॥ ६२ ॥ १७
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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