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________________ atest अध्ययन १०५ टीका :- देशो को नाम यो अस्ति न्वेष जीवेति सिद्धे सत्यकत्रदिकै ग्रहैर्जीवस्य देशोच्छेदमपूर्णच्छेदं वा वदति । गतार्थः । प्रोफेसर शूविंग लिखते हैं, कि चतुर्थी उत्कट उधार ली हुई दलीलों से आत्मा के अस्तित्व के लिए संघर्ष करता है । शरीर से भिन्न आत्मा का अस्तित्व सिद्ध हो जाने पर भी उसके रामस्त गुणों को स्वीकार नहीं करता । प्रश्नः - से किं तं सब्बुकले ? | उत्तर :---सबुकले णामं जेणं सव्वतो सव्वसंभवाभावा णो तयं सव्वतो सव्वहा सव्वकालं च पत्थिति सम्बध से सम्बुले । अर्थ :- प्रश्न :- भगवन् ! सर्वोत्कट क्या है ? उत्तर :-- सर्वोत्कट उसे कहते हैं जो समस्त पदार्थ सार्थ को सर्वथा ही असल मानता है । सर्वथा सर्वकाल में पदार्थ सार्थ का अभाव हैं। इस प्रकार सर्व विच्छेद की बात करता है वह सर्वोत्कट है । गुजराती भाषान्तर: પ્રશ્ન:— ભગવન્ ! સર્વોત્કટ શું છે ? ઉત્તર:સર્વોત્કટ તેને કહે છે કે જે બધા પદાર્થોને હંમેશા અસત્ય માને છે. હંમેશ સર્વકાલમાં પદાર્થોનો અભાવ છે. આ રીતે અષ્ઠી વિચ્છેદની વાતો કરે છે તે સર્વોત્કટ છે कुछ दार्शनिक सर्वोच्छेद-वादी होते हैं। वे आत्मा के गुण धर्मों में से एक को भी नहीं स्वीकार करते। जिस व्यक्ति को आत्मा पर विश्वास नहीं है वह परमात्मा पर भी विश्वास नहीं कर सकता है, क्योंकि आध्यात्मिक साधना का प्रथम सोपान आत्म-तत्र की स्वीकृति है। जिसे यह भी पता नहीं कि मैं कौन हूं, मेरा स्वरूप क्या है, वह साधना के क्षेत्र में क्या गति करेगा। पर सर्वोच्छेद-वारी आत्मा और उसके समस्त पर्यायों के अस्तित्व से इनकार करता है। उपायतला अहे केसग्गमत्वका एस आता पजवे कलिणे तय परियंते जीत्रे, एस जीवे जीवति । एतं तं जीवितं भवति, से जहा णामते दढेसु बीएसु ण पुणो अंकुरूप्पत्ती भवति एवमेत्र वडे सरीरेण पुणो सरीरुत्पत्ती भवति । अर्थ :- ऊपर से पद तल तक और नीचे से मस्तक के केशाम तक आत्मा के पर्याय है। शरीर की त्वचा पर्यन्त जीव है । यह जीव का जीवन है । उन को जीवित कहा जाता हैं । जैसे जले हुए बीजों में फिर से अंकुर नहीं निकल सकते, इसी प्रकार शरीर के नष्ट हो जाने पर पुनः शरीर की उत्पत्ति नहीं हो सकती हैं । गुजराती भाषान्तर : ) ઉપરથી પગસુધી અને નીચેથી માથાના દેશાય સુધી આત્માનાં પર્યાય છે. શરીરની ત્વચા ( ચામડી) સુધી જીવ છે, આ જીવનું જીવન છે. તેને વિત ( ચેતન કહેવામાં આવે છે, જેમ બળેલાં બીજોમાં ફરીથી અંકુરી નથી નીકળી શકતા, તેવીજ રીતે શરીરનો નાશ થઈ જવાથી ફરીથી શરીરની ઉત્પત્તી નથી થઈ શકતી. इसी नाविक बाद की विशेष व्याख्या दी गई है। अनात्मवादी दार्शनिक स्थूलप्राही होता है। वह यह कहता है। कि पद तल से कैशाल तक आत्मा है यहीं जीव है। देह के अतिरिक्त आत्मा नाम की कोई दूसरी स्वतंत्र वस्तु भी है ऐसा वह नहीं स्वीकार करता हैं । देहात्मवादियों के अनुसार भव- परम्परा संभव नहीं हैं। इसका हेतु वे इस रूप में देते हैं । बीज से वृक्ष पैदा होता है यह निश्चित सिद्धान्त है, किन्तु जब बीज ही जल गया तो अंकुर कैसे फूटेंगे? इसी प्रकार अगले जन्म का बीज शरीर है। जब शरीर ही जल गया तो अगला जन्म कैसे संभव है ! । देह को बीज मानने वाले कुछ दार्शनिक ऐसा भी मानते हैं कि पुरुष मर कर पुरुष होता है और स्त्री मर कर स्त्री होती है। 'जैसा बीज वैसा फल यह ध्रुव सिद्धान्त । पंचम गणधर सुधर्म स्वामी भगवान् महावीर के परिचय में आने के पूर्व इसी फिलॉसॉफी में विश्वास रखते थे। भगवान् महावीर ने उनका समाधान करते हुए कहा था कि यह निश्चित है कि जैसा बीज होगा वैसा ही फल होगा। किन्तु श्रीज की व्याख्या में अन्तर है । स्थूल देह बीज नहीं है। मीज तो है वेह में रहे हुए आत्मा के शुभाशुभ अध्यवसाथ 1 वें ही भीज हैं और उन्हीं के अनुरूप आत्मा अगला जन्म पाता है । १. जो जीडे वि म याणई अजीवे यागर 1 जीवाजीव अयाणती कई सोणादिइ संजम । - दशबै० ४० ४. छह्र मेगेसिं 'यो सण्णा भवर के अहं आसी के वा शत्रुओ इह पेच भविरसामि । मचारांग सूत्र । १४
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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