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इसि भासियाहं
देहात्मबादी स्थूल देह को ही बीज मानते हैं। परन्तु देह तो चिता में भस्म हो जाता है अतः आत्मा बीज के अभाव में नया जीवन पा नहीं सकता।
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टीका :- एवं नास्तिकवादमुदाहरति यथा कर्ध्व पादतलेऽधः केशाप्रमस्त कैशत्म पर्यायः कृष्णस्त्वक्पर्यम्सो जीवः । एष जीओ जीवति एतज्जीवितं भवति यथा दग्धेषु श्रीजेपु न पुनरंकुरोत्पत्तिर्भवति, एवमेव दग्धे शरीरे न पुनः शरीरोपतिर्भवति । गतार्थः ।
तम्हाणमेव जीवितं णत्थि परलोए, णत्थि सुक्कड दुक्कडाणं कम्माणं फलवित्तिविसेसे णो पश्चायंति जीवा, गो फुसंति पुण्ण-पावा, अफले कल्लाण पावर, तम्हा एतं सम्मं ति मि। उ पायतला आहे. केसग्गमत्थगा एस आया प(ज) क(सिने) तया परितं ते एस जीवे, एसा मडे णो पतं से जहा णामते हे वीरसु ण पुणो अंकुरोत्पत्ति भवति पवमेव दहे सरीरे णो पुणो सरीरुपपत्ती भवति । तम्हा पुण्ण पाचग्गहणा सुह- दुक्ख संभवाभाग शरीरं दहेसा पावकम्माभावा शरीरं इहेत्ता णो पुणो सम्पत्ती भवति ।
अर्थ :- अतः यही जीवन है। पर लोक जैसी कोई वस्तु नहीं है । सुकुल और दुष्कृत कर्मों का कोई फल भी नहीं हैं। आत्मा पुनः आता भी नहीं है। पुण्य और पाप आत्मा को स्पर्श नहीं करते। पुण्य और पाप वस्तुतः निष्कल ही है। इस लिए मैं ठीक कहता हूं कि ऊर्ध्व पाद तल से मस्तक के केशाम तक यही आत्मा है। यही वचा पर्यन्त जीव है । यह इस्तामलकवत् ज्ञात है। जैसे दव ( जली हुए ) में पुनः अंकुरोत्पत्ति नहीं होती। इस प्रकार दुग्ध शरीर से पुनः शरीरोपत्ति नहीं हो सकती । अतः पुण्य पाप के ग्रहण करने से सुख-दुःख का अभाव है और शरीर को जला देने पर पाप कर्म का अभाव है। अतः शरीरी और आत्मा को जला देने पर पुनः शरीर की उत्पत्ति संभावित नहीं है। गुजराती भाषान्तर :
भाटे मन छे, परओ केवी श्रेध वस्तु नधी सुत ( झुठायें) भने अमृत ( रा स ) भौनुं કઈ પશુ ફળ નથી. આત્મા અહિંયા ફરીથી આવતો પણ નથી, પુણ્ય અને પાપ આત્માને સ્પર્શ ( અડકતાં ) પશુ નથી. પુણ્ય અને પાપ વસ્તુતઃ નીષ્ફળ જ છે. આથી હું ઠીક કહું છું કે ઉબ્ને પગના તલીયાથી માથાના કેશામ (चायना आगणना छेडा) सुधी या आत्मा ले मा त्वया (आभडी) सुधी बछे मा हस्तामलक्तू ( हाथभां રાખેલા આંબળાની માફ્ક) જોવાય છે જેમ અળેલા બીજોમાં ફરીથી અંકુરની ઉત્પત્તિ નથી થતી તેજ પ્રમાણે અળી ગએલ શરીરથી ફરી શરીરની ઉત્પત્તિ થતી નથી. અતઃ પુણ્ય પાપના ગ્રહણ કરવાથી સુખદુઃખનો અભાવ છે. અને શરીરને બાળી નાખવાથી કમોનો નાશ થાય છે. અતઃ શરીર અને આત્માને બાળી નાખવાથી ફરીથી શરીરની उत्पत्ति थती व नथी.
देहात्मबाद स्वीकार कर लेने के बाद पुण्य और पाप जैसी कोई वस्तु नहीं रहती है। क्योंकि पुण्य-पापादि कर्म चैतन्य से संबन्धित रहते हैं। क्योंकि आत्मा के शुभाशुभ अभ्यवसाय ही पुण्य पाप के मूल हेतु हैं। देहात्मबाद के सिद्धान्त में देह के भम्म हो जाने पर सब कुछ भस्म हो जाता है। फिर दूसरे तत्त्वों की संभावना ही कैसे होगी ? ।
टीका :--- तस्मादिदमेव जीवितं नास्ति परलोको नाम्ति सुकृतदुष्कृतकर्मणां फलघृत्तिविशेषः । न प्रत्यायान्ति जीवा न स्पृशन्ति पुण्यपापे अफलं कल्याणपापकं । तस्मादेतत् सम्यग् इति ब्रवीमि यथोमित्यादि यावत् पर्यन्तो जीवः । एष मृतो नैतजीवितं भवति । यथा नाम दग्धेषु श्रीजेष्वन्यां कुरोत्पत्तिर्भवति । एवमेषाऽदग्धे शरीरेऽन्यांकुरोत्पत्तिर्भवति । तस्मात्तपः संयमाभ्यां मूळे शरीरं वन्ध्या न पुनः शरीरोत्पतिर्भवतीति । | विहितपुस्तकानुसारेणाध्याहार्यम् । नास्तिकं प्रयुक्तं तस्मात् पुण्य-पापग्रहणात् कर्मलब्धसुखदुःखसंभवाभावाच्छरीरवाई पापकर्माभावाश्च शरीरं दग्ध्वा न पुनः शरीरोत्पत्तिर्भवति । सरकटाध्ययनम् ।
यही जीवन है। परलोक सुकृत, दुष्कृत और कर्म फल जैसा कोई तत्व नहीं है। आश्मा पुनः लौट कर नहीं आता है । पुण्य पाप आदि कर्म आत्मा को स्पर्श नहीं करते हैं । अतः कल्याण अर्थात् पुण्य और पाप निष्फल हैं। इसी लिए सम्यक् प्रकार से कहता हूं कि त्वचा पर्यन्त ही जीव है। ऋषि देहात्मबाद का खंडन करते हैं कि, यह शरीर तो मृत है। अतः यह व्याख्या गलत है। ऐसा जीवन नहीं हो सकता। जिस प्रकार बिना जले हुए बीजों से दूसरे अंकुर फूट पड़ते हैं, उसी प्रकार सूक्ष्म शरीर के नहीं जलने से दूसरे शरीर की उत्पत्ति हो जाती है। अतः तप और संयम के द्वारा मूल शरीर को जला देने पर पुनः दूसरे शरीर की उत्पत्ति नहीं हो सकती। दूसरी चिन्हित प्रति के अनुसार यहां यह पाठ अध्याहार्य