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इक्कीसवां अध्ययन
है। इस प्रकार नास्तिकवाद का खंडन किया गया है। अतः पुण्य पाप के प्रहण से होने वाले कर्मजन्य सुम्ख-दुःख का अभाव होता है और शरीर के जलने पर पाप कर्म का अभाव होता है, तभी दग्ध देही अतः पुनः शरीर को नहीं उत्पन्न
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प्रस्तुत अध्ययन में देहात्मवाद का ही निरूपण है। सूत्र के शैली के अनुरूप ही अर्हता का नाम भी नहीं है। अतः सूत्र की शैली से इस अध्ययन की शैली भिन्न पड़ जाती है। साथ ही संपूर्ण अध्ययन देहात्मवाद चार्वाक दर्शन के ही सिद्धान्तों का प्रतिपादन कर के रह जाता है । उसका प्रतिवाद नहीं करता है। प्रोफेसर शुटिंग भी प्रस्तुत अध्याय की इन कमियों की ओर लक्ष्य खींचते हैं।
टीकाकार प्रस्तुत अध्ययन के अन्त में अन्य पुस्तकों का आधार लेकर देहात्मवाद का खंडन करते है। उनका कहना है कि स्थूल वेह लो चिता में रास्त्र की देर हो जाता है। किन्तु सूक्ष्म देह आत्मा के साथ रहता है। जैन दर्शन के अनुसार कार्मण्य शरीर भवस्थ आत्मा के साथ सदैव रहता है । स्थूल आग उसे जला भी नहीं सकती है। और वही शरीर अन्य शरीर की उत्पत्ति का हेतु है। साधक तप और संयम के द्वारा सूक्ष्म देह को भस्म कर देता है, तो पुनः शरीर की उत्पत्ति नहीं होती।
एवं से घुद्धे० । गतार्थः । उत्कल-बाद नामकं विशतितममध्ययनम्
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गाहावती-पुत्र तरुण अर्हतर्षि प्रोक्त
इक्कीसवां अध्ययन एक आगम का वाक्य है कि "जावंति अविजा पुरिसा सब्चे ते दुक्लसभवा"-भगवान महावीर। जब तक अज्ञान है तब तक दुःख रहेगा ही। साधक जीवन का लक्ष्य है अन्धकार से । प्रकाश की ओर आए अज्ञान ले ज्ञान की ओर आना ही हमारी साधना का लक्ष्य है। ज्ञान जलती हुई मशाल है, उसके प्रकाश में हम प्रशस्त पथ की और आगे बढ़ते हैं। ज्ञान अनुभव की बेटी है। किसी अंग्रेजी विचारक ने ठीक कहा है कि Wisdom is to the soul what health is to the body आत्मा के लिए ज्ञान उतना ही आवश्यक है जिनुना शरीर के लिए खास्थ्य 1 गीता में कर्मयोगी श्रीकृष्ण स्वयं कहते है कि:
यथैधांसि समितोऽनिर्भमसात् कुरुतेऽर्जुन ।
ज्ञामानिः सर्षकर्माणि भस्मसात् कुरुते तथा ॥-धीकृष्ण-गीता । हे अर्जुन ! जिस प्रकार जलती हुई अग्नि इंधन को भस्म कर देती है, उसी प्रकार से ज्ञानामि सभी कर्मों को भम्म कर देती है। शान का ध्येय सत्य है और सत्य ही आत्मा की भूख है।
The aim of knowledge is truth, and trutli is need of soul-लेसिंग । स्वज्ञान जीवन की वह अंधेरी रात है जिसमें न चदि है, न तारा । कन्फ्यू सस कहते हैं:
Ignorance is night of the mind but a night without inoon or stars. प्रस्तुत अध्याय में तरुण अईतर्षि "गाथापतिपुत्र" अज्ञान से मुक्त होने की प्रेरणा देते हैं। सिद्धि । णाई पुरा किंचि जाणामि सध्यलोकमि गाहावतिपुतेण तरुणे अरहता इसिणा युइतं ।
अर्थ:-मैं पहले समस्ख लोक में कुछ भी नहीं जानता था । इसप्रकार “गाथापतिपुत्र" तरुण अईतर्षि बोले। गुजराती भाषान्तर:
હું પહેલા આ વિશાલ નિયામાં કંઈ જ જાણતું ન હતું. આ પ્રમાણે “ગાથા પતિપુત્ર” તરુણ અદ્વૈતર્ષિ બોલ્યા.
प्रस्तुत अहंतर्षि के संबन्ध में तहण विशेष महत्त्वपूर्ण संकेत देता हैं। उठता हुआ तारुण्य में युवक 'गाथापतिपुत्र' ने अपने जीवन को भोग से योग की ओर मोड दिया । यौवन के निर्बन्ध प्रवाह में हजारों युवक वह जाते है । जब माया