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पञ्चीसवां अध्ययन
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अर्थ:-जो आर्य आत्माएँ पाप कर्म से विमुक्त हैं, वे गर्भ घास में नहीं आती है। वे स्वयं प्राणों को परिताप नहीं देते हैं। पूर्वोक्त वर्णन के ठीक विपरीत उनका जीवन होता है। यावत् किया रहित होते हैं, वे एकान्ततः पंडित होते हैं। राम द्वेष से उपरत रहते हैं । त्रिगुप्तियों से गुम होते है । मनादि त्रिदंडों से गुप्त रहते हैं । आगम में वर्णित माया निदान और मिथ्यादर्शन के शल्य से विरत होते हैं । वे आत्म स्वभाव के रक्षक होते हैं। जिन्होंने चारों कषायों पर विजय पाई है, वे चारों विकथाओं से विवर्जित, महावतों से युक्ता, पंच इन्द्रियों को सुसंकृत रखने वाले षट्-जीव-निकाय की सुरक्षा में श्रेष्ठ रूप से निरत हैं। सप्त भयों से रहित और अभयदी है। आठ मद स्थान से विवर्जित ब्रह्मचर्य के नौ प्रकारों से जिनका जीवन सुरक्षित है साथ ही इस प्रकार के समाधि स्थानों के द्वारा जिनका मन समाधिस्थ है, ऐसी आत्माएँ पापकर्मों को और कलिकालष्य को क्षय करके यहां से च्युत होकर सद्गति के गामी होते हैं। गुजराती भाशान्तर:
જે આર્ય આત્માઓ પાપકર્મવગરના છે તે ગર્ભવાસમાં ફરી આવતા નથી. તે સ્વયં પ્રાણોને પરિતાપ દેતા નથી, પૂર્વોક્ત વર્ણનથી ઉલટું જ વિપરીત તેમનું áન હોય છે. યાવત્ ક્રિયારહિત હોય છે, તે એકાન્તતઃ પંડિત હોય છે રાગદ્વેષર્થી પર હોય છે. ત્રિગુપ્તિઓથી ગુપ્ત હોય છે, મનદિ ત્રિદંડોથી ગુમ રહે છે, આગમમાં વર્ણન કરેલા માયા નિદાન અને મિથ્થા-દર્શનના શલ્યથી રહિત હોય છે, તે આત્મા પોતે જ સ્વભાવના રક્ષક હોય છે. જેઓએ ચારે કષાય પર વિજય મેળવ્યો છે, તે ચારે વિકથાથી રહિત, મહાવ્રતોથી યુક્ત, પાંચ ઇન્દ્રિયોને સુસંવૃત રાખવાવાળા, છકાય જીવની સુરક્ષામાં શ્રેષ્ઠ રૂપથી નિરત છે સાત ભયોથી રહિત અભયદશી છે. આ મઠ સ્થાનથી રહિત અને, બ્રહ્મચર્યના નવ પ્રકાર જેવું જીવન સુરક્ષિત છે, સાથે જ પ્રકારની સમાવે-સ્થાનો દ્વારા જેનું મન સમાધિસ્થ છે, એવા આત્માઓ પાપકમીને અને કલિયુગના દોષોને નાશ કરીને આ લોકથી મુક્ત થઈ સદ્ગતિ મેળવે છે.
'संसार चक्र का अन्त कौन करता है। इस प्रश्न का उत्तर यहाँ दिया गया है। जिसने विकारों पर विजय पाई है, छोटी छोटी भूलों पर भी जो बारीकी से दृष्टि रखता है, जिसके मन नाणी और कर्म में एकरूपता है, जिसकी इन्द्रिय विपथ-पामिनी नहीं हैं, जिसने कषायों पर विजय पाई है, ब्रह्मचर्य की प्रभा से जिसका मुख आलोकित हो रहा है और जिसका मन समाधि में लीन है वहीं साधक भव-परम्परा को समाप्त कर सकता है।
जिसका अन्तःकरण पवित्र है वही परमात्म-पद प्राप्त कर सकता है। साधना की भूमि मन्दिर और उपाश्य नहीं है अपि तु मानव का अन्तःकरण है। एक इंग्लिश विचारक ने ठीक ही कहा है कि Man's conscienco is the ored of God. मानव का अन्तःकरण ही ईथर की वाणी है। हमारे कदम ठीक राह पर हैं या गलत राह पर । इसका निर्णय हमारा अन्तर्मन देता है । शुद्ध अन्तःकरण से जो आवाज आए उसी पर चल पड़ो वही आत्मा की आवाज होगी । जिसमें केवल तुम्हारा ही हित हो और तुम्हारे पडोसी का अहित छिपा हुआ हो वह आवाज आत्मा की नहीं, शरीर की है। उसमें देदाध्यास की छाया है। यही कारण है कि कमी कमी हमारी चेतना में द्वन्द्व होता है। हम शीघ्र निर्णय पर नहीं आ सकते । इसका कारण शरीर और मन की आवाज भिन्न भिन्न होती है और दोनों में संघर्ष होता है। एक विचारक कहता है
Conscience is the voice of the soul as the pussions are the voice of the body. No wonder they often contradict cach other.
अन्तःकरण आत्मा की आवाज है जैसे वासना शरीर की । इसमें आश्चर्य ही क्या है ! यदि वे एक दूसरे का खंडन करती है।
जिसने आत्मा की आवाज को पहचाना है वह बहिरात्मा से हट कर अन्तरात्मा की ओर आएगा और अन्तरात्मा से परमात्मा की ओर कदम बढ़ाएगा । यहाँ पर उन वृत्तियों को गिनाया गया है जो आत्मा की शुद्ध स्थिति में पहुंचने से रोकते हैं। उन पर विजय पाए बिना साधक परमात्म-स्थिति को प्राप्त नहीं कर सकता है।
-मन वचन और काया की प्रवृत्ति को अशुभ की ओर जाने से रोकना 'गुप्ति' है।
१ सम्यम्योगनिग्रहो गुप्ती । तत्वार्थसूत्र अध्याय ९ सूत्र४1
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