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________________ इसि-भासियाई त्रिदंड:-मन वाणी देह स्व तथा पर के उत्पीड़क बनते हैं तब 'दं' कहे जाते हैं। शस्य:-शुद्ध स्थिति में जो वृत्ति कोटे-सी चुभती है उसे 'शल्य' कहा जाता है। विकथा:-ईर्ष्या और कलह प्रेरित कथाएँ 'विकथा' या व्यर्थ कथाएं हैं। जो राज्य देश, भक भोजन और श्री संबन्धित हो कर चार प्रकार की है। महावत:-हिंसा, असल्य, स्तेय, वासना और परिप्रह से सम्पूर्ण रूप से विरत होना ही महावत है। कपाय:-भव परिभ्रमण की पृद्धि करने वाली आत्मा की वैभाविक दशा । कोथ, मान, माया और लोभ जिसके ये चार भेद है। भय:-भयजन्य वृशि; इग लोक से संबन्धित, परलोक का डर, आदान लेने का हर अकस्मात् आजीविका अपयश और मृत्यु के रूप में भय के सात प्रकार हैं। मद:-आत्मा की गलत अहंपत्ति । उसके आठ रूप हैं:-जाति, कुल, बल, रूप, लाभ, तप, सूत्रज्ञान और सत्ता। इन सब पर विजय पाने वाला ही ब्रह्मचर्य की साधना कर सकता है। वही समाधि-भाष में रह सकता है। इस जीवन के बाद मुगति को प्राप्त कर सकता है। टीका:-ये खल्वायर्याः पापैः कर्मभिर्विमुक्का भवन्ति ते खलु गर्भावर्षासु न सजन्ति; ते न स्वयमेव प्राणिनोऽतिपतन्ति इत्यादि विपरीतं पूर्व याववक्रियावन्तः संवृता पुकान्तपंडिता, व्यपगतरागद्वेषाः, त्रिगुप्तिगुप्ताः, त्रिदोपरता निःशल्याऽऽस्मरक्षिणो, व्यपगतचतु:कषायाश्चतुर्विकथाविवर्जिताः, पंचमहाव्रतधरा धरति परित्याज्य, पुस्तकेषु तु न श्यते। तिगुसत्ति त्रिगुप्ता न यथासंख्यं पंचेन्द्रियसंवृताः पद्जीवनिकायसुधुनिरताः ससमय विप्रमुक्ताः भष्टमवस्थानहीमा, नवनामचर्ययुकादशसमाधिस्थानसंप्रयुक्ता बहु पाप कर्म कलिकलुष क्षपयित्वेतभ्युताः सुगतिगामिन्यो भवन्ति । गतार्थः । विशेष पंच महाव्रत के साथ धरा पाठ यद्यपि पुस्तक में नहीं है । तथापि आवश्यक है। ते णं भगवं सुसमग्गाणुसारी खीणकसाया दंतेंदिया सरीरसाधारणट्ठा जोगसंधाणताए णवकोडीपरिसुद्धं दसवोसविष्पमुक उम्गमुप्पायणासुद्धं इतराइतरेहिं कुलेहिं परकडं परिणिहितं विगसिंगालं विगतधूम पिडं सेनं उवधिं च गवेसमाणा संगतविणयोवगारसालिणीयो कल-मधुररिभितभासिणीओ संगत गत हसित-भणित-सुंदर-थण-जण-पहिरुवाओ इत्थियाओ पासित्ताणो मणसा घि पाउन्माचं गच्छति। अर्थ:-हे भगवान् अम्बड ! सूत्रमार्ग का अनुसरण करने वाले वे साधक क्षीण कषायी और दान्तेन्द्रिय होते हैं। शरीर धारण के लिये योग-साधन के लिए नद कोटि परिशुद्ध आहार ग्रहण करते हैं। साथ ही वह आहार भिक्षावरी के दस दोषों से रहित होता है। सोलह उद्गमन और सोलह उत्पाद के दोषों से विवर्जित है । अन्यान्य कुलों में पर-कृत परिनिष्ठित (दुसरों के लिए निर्मित) है। जिसमें अग्नि बुझ चुकी है और धुवाँ भी उपशान्त है, ऐसे ही निर्दोष आहार, शय्या और उपधि को खोजने वाले मुनिगण सुन्दर नारियों में आरक्त नहीं होते हैं। जोकि समुचित विनयोपचार में कुशल है, सुन्दर, मधुर और रिमित अर्थात् खर के माधुर्य से युक्त संभाषण करने वाली, सुन्दर स्तन और जंघाओं से सुशोभित निरूपम रूपशालिनी अवसर पर हास्य और संभाषण करने वाली नारियों को देख कर उनके मन के एक कोने में भी बासना का उद्भव नहीं होता है। गुजराती भाषान्तर: હે ભગવાન અખ્ખી સૂત્રમાર્ગનું અનુસરણ કરનાર સાધક ક્ષીણ કવાયી અને દાનેન્દ્રિય (ઇન્દ્રિય પર કાબુ રાખનાર) હોય છે. શરીરને વ્યવહાર ચાલુ રહે તે માટે યોગસાધના માટે નવ કોટિ પરિશુદ્ધ આહાર ગ્રહણ કરે છે. તે આહાર ભિક્ષાથરીના દશ દોષથી રહિત હોય છે, સોળ ઉદ્દગમન અને સોળ ઉત્પાદના દોષોથી રહિત છે, જુદા જુદા કળોમાં પર કાપરિનિષ્ઠિત (બીજાઓ માટે નિર્મિત છે), જેમાં અગ્નિ કરી ગયો છે. અને ધુવાડો પણ નાશ પામ્યો. છે. એવી રીતે જ નિર્દોષ આહાર શમ્યા અને ઉપધિને શેધવા વાળા મુનિગણ સુંદર નારીમાં આસક્ત થતા નથી. हिंसानृतस्तयाग्रहापरिग्रहेन्यो बिरतिनतम् । अ०७-१ । देश सर्वतोऽणु महती-तत्वार्थ. म०७ १-३।
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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